प्रेमेन्द्र मिश्रा/ एक पत्रकार एक नेता को टीवी शो से खदेड़ता है, एक नेता पत्रकार को मुक्का मारने की धमकी देता है, एक पत्रकार नेता को टुच्चा कहता है, एक मौलाना टीवी एंकर को चड्ढी पहनने की सलाह देता है, एंकर मौलाना को गरियाती है ..... यहाँ तक तो आ गए , अब सुनेंगे की पत्रकार और नेता एक दूसरे पर जूते ले कर पड़े हैं - तेरी तो ... आखिर क्यों ? कभी सोचा है ? दरअसल पत्रकार अपना काम भूल गए है।
मुझे याद आता है 1993 का एक सम्मलेन जब पटना के सम्राट होटल में हिंदुस्तान के प्रधान संपादक आलोक मेहता जी हम नवोदितों को पत्रकारिता के गुर सिखा रहे थे। उन्होंने कहा था पत्रकार सिर्फ कमेंट्रेटर होता है। समाज में जो हो रहा है उसे लोगों तक बस यथा रूप पहुचाना उसका काम है। वो समाज सेवी नहीं, जज नहीं, नेता नहीं, अधिकारी नहीं, कानून नहीं, विश्लेषक नहीं। इन सब की लोकतंत्र में अलग व्यवस्था है। सबसे बड़ा जज देश की जनता है, फिर न्यायपालिका है, संसद है, नेता है, अधिकारी है, बुद्धिजीवी है, समाजसुधारक हैं, पुलिस है, आप तो बस पूरा नज़ारा रख दो इनके सामने, आइना दिखा भर दो। लेकिन बाद में पत्रकार जज बन गए, वो सही गलत के फैसले देने लगे, वे जनता बन गए, सरकार बनाने बिगाड़ने लगे, वे अदालत बन गए, मुक़दमे का ट्रायल करने लगे, वे पुलिस हो गए, अपराध का अनुसन्धान करने लगे, वे समाज सुधारक हो गए और मुल्ला पंडित को चुनौती देने लगे, वे धर्म सुधार में जुट गए, अब ऐसे में टकराव तो होंगे ही, जूते चलेंगे ही।