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____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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तथ्यपरक रिपोर्टिंग का रिवाज ही खत्म

उर्मिलेश/ राष्ट्रीय राजनीति हो या देश का कोई भी बड़ा घटनाक्रम; उसके बारे में देश के टीवी चैनल जिस तरह की खबरों का प्रसारण करते हैं या उन पर चर्चा कराते हैं; उसका जमीनी सच से वास्ता नहीं होता! सच को इस तरह तोड-मरोड और विकृत करके वे पेश करते हैं कि सुनने और देखने वालों के दिमाग में सरकार की हमेशा 'ईश्वर' की तरह धवल और शानदार छवि उभरे. उसकी कमजोरी, कमी या उसका नकारात्मक पक्ष हरगिज उजागर न हो! उनकी ऐसी प्रस्तुति का आधार 'ऊपर का डिक्टेट' होता है. एकतरफा सूचनाओं, सरकारी फीडबैक और थोडे-बहुत 'गूगल-ज्ञान' के जरिये वे अपने समाचार-विचार कार्यक्रमों को पेश करते हैं.

पहलगाम कांड का टीवी कवरेज इसका क्लासिक उदाहरण है! इन चैनलों ने एक बार भी देश-दुनिया को नहीं बताया और न उस पर चर्चा कराई कि आतंकी हमले के वक्त पहलगाम की उस घाटी में कोई सुरक्षा बंदोबस्त नहीं था. सुदूर की रमणीक घाटी में डेढ-दो हजार पर्यटक और वहां उनकी सुरक्षा पर नजर रखने के लिए एक भी सुरक्षा-कर्मी नहीं! हमले के काफी देर बाद पुलिस और अन्य सुरक्षाकर्मी वहां पहुंचे! एक चैनल के कश्मीर संवाददाता ने अपने लाइव-कवरेज में जैसे ही इस सच को उजागर करना शुरू किया; उसे फौरन 'ऑफ-स्क्रीन' कर दिया गया! उसके बाद हर खबर में सिर्फ हिंदू-मुसलमान किया जाने लगा!

पहले भी कश्मीर के हर पहलू को ये चैनल 'हिंदू-मुस्लिम' बनाते रहे हैं! लेकिन पहलगाम-हमले के विरूद्ध बुलंद आवाज उठाकर कश्मीरियों ने इस बार टीवीपुरम् की कोशिशों को पंचर कर दिया है! पहलगाम हमले के संदर्भ में चैनलों का कवरेज इतना पूर्वाग्रह भरा, वाहियात और एकतरफा था कि आम दर्शकों ने भी इस बार चैनलों की असलियत समझ ली है. अंग्रेजी अखबारों और अनेक वेबसाइटों ने तमाम दबावों के बावजूद जरूरी तथ्यों के साथ रिपोर्टिंग की और कुछ अच्छे विश्लेषण भी पेश किये!

ऐसी बात नहीं कि चैनलों में तथ्यपरक रिपोर्टिंग करने लायक पत्रकार नहीं रह गये हैं. थोडे-बहुत अब भी हैं. पर 'न्यू इंडिया' (साॅरी, 'नवीन भारत' कह लें) में तथ्यपरक रिपोर्टिंग का रिवाज ही खत्म हो चुका है..

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सम्पादक

डॉ. लीना