विनीत कुमार। पेशे की बुनियादी बातें एकदम ठिकाने लगाकर इसकी या उसकी पक्ष लेने का सबसे ज़्यादा नुक़सान उन छात्रों और नए मीडियाकर्मियों को हुआ है जिनका सीखने-समझने और मेहनत करके इस पेशे में मक़ाम हासिल पर से तेजी से भरोसा उठने लगा है. उन्हें लगता है कि बिना विषय को समझे, ख़ूब मेहनत से पढ़ने और तथ्यात्मक बातें करने से कुछ नहीं होता. किसी एक सिरा पकड़ो और आंख मूंदकर हां में हां मिलाते जाओ, कम समय में जगह पर पहुंच जाओगे. संभवतः वो अपने आसपास ऐसा होते हुए देखते हों तो यह यकीं और पक्का होता जाता होगा. यह बात मैं लंबे समय के अपने अनुभव के आधार पर कह रहा हूं.
मैं किसी भी मीडिया संस्थान में किसी से किसी के लिए "देख लेने" की बात नहीं करता. अपने आसपास नए लोगों को परेशान देखता हूं तो ज़रूर कहता हूं कि कहीं कुछ पता चलेगा तो बताऊंगा. मैं इस दुनिया का बेहद मामूली आदमी हूं और इसको लगाओ, उसको भिड़ाओ के खेल में मेरी शुरु से दिलचस्पी नहीं रही. लेकिन पता नहीं किस भरोसे से लगातार कोई न कोई संस्थान या उनसे जुड़े व्यक्ति मुझसे कहते रहें कि तुम्हारी नज़र में पत्रकारिता की पढ़ाई कर रहा या कर चुका मेहनती छात्र हो तो बताना. शुरु में ऐसा किया भी लेकिन इसके अनुभव इतने अलग रहे कि बहुत संभल गया.
मैं यह बात पिछले तीन-चार साल से ज़्यादा से देख रहा हूं कि हमारे आसपास के कई ऐसे नए लोग काम, आर्थिक स्थिति और घर के दबाव को लेकर बुरी तरह परेशान हैं. पूरे दिन का बड़ा हिस्सा सोशल मीडिया पर बिताते हैं लेकिन किसी संस्थान से जुड़कर काम करना पसंद नहीं करते. हमें इन्टर्नशिप के नाम पर कराए जानेवाले काम और दमघोंटू माहौल की ठीक-ठाक समझ है और समय-समय पर इसके बारे में लिखा भी है. लेकिन मैं अभी तक यह बात समझ नहीं पा रहा हूं कि वो काम क्यों नहीं करना चाहते ?
मैं जब टीवी टुडे नेटवर्क में इन्टर्नशिप कर रहा था, उन दिनों बस सुनता ही रहा कि फलां संस्थान इन्टर्न को पैसे देते हैं, फलां तो बाकी सुविधाएं भी देते हैं. लेकिन पक्के तौर पर किसी ने पैसे मिलने की बात नहीं कही. हम रोज अपना सौ-पचास खर्च करके इन्टर्नशिप पर जाते और काम करके वापस आते. थोड़े समय बाद मन में यह सवाल उठने लगा था कि मुफ़्त में हम अपना दिनभर लगा दे रहे हैं. फिर इस बात को लेकर संतोष कर लेते कि कोई कोर्स कर रहे हैं.
अब एकदम फ्रेश को मैंने बीस-पच्चीस-तीस हजार रूपये महीने मिलने की बात के साथ बताया कि कोशिश करो लेकिन इस काम को लेकर बिल्कुल उदासीन. मैं उनकी इस मानसिकता को गहराई के साथ समझना चाहता हूं. जानना चाहता हूं कि आख़िर वो ऐसा किए जाने के पीछे किस तरह का तर्क अपने साथ लेकर चलते हैं ? एक तो यह बात समझ आती है कि पत्रकारिता की पढ़ाई कर रहे छात्रों का एक वर्ग किसी मीडिया संस्थान से जुड़कर राजनीतिक दलों की आइटी सेल या प्रोफाइल अपडेट करने के काम से जुड़ रहे हैं. इस काम में वो अपना बेहतर भविष्य देखते हैं लेकिन ये सचमुच इतना आसान काम है ?
तीन साल, पांच साल पत्रकारिता की पढ़ाई करने के बाद पत्रकारिता के पेशे के प्रति एकदम से उदासीन हो जाने या फिर दूसरी तरफ आइटी सेल में दिलचस्पी रखने को लेकर मैं चलताऊ ढंग से यहां कुछ लिखना नहीं चाहता लेकिन इस बनती मानसिकता को लेकर यकीं मानिए मैं भीतर से सिहर जाता हूं- जिस तेजी से अवसर सिमटते जा रहे हैं, हजारों-लाखों की ये संख्या आगे कहां जाएगी, क्या करेगी ? अभी से ही किसी एक खूंटे से बंधकर सोचने और बिना तथ्यों के, अध्ययन के कुछ भी लिख देने की आदत बरक़रार रही तो इनके साथ-साथ पत्रकारिता का क्या होगा ?