सीटू तिवारी। सुबह वरिष्ठ पत्रकार कन्हैया भेलारीजी को देखा कि वो अपने ही भोजपुरिया ठसक अंदाज़ में अपने पोर्टल 'न्यूज़ हाट' पर अखबारों में छपी खबरों की समीक्षा कर रहे थे।
उनकी समीक्षा को सुनते हुए ये ख्याल आया कि क्या अखबार बिहार के कई अंदरूनी और दुर्गम इलाको के लिये एक "लग्जरी गुड" है?
अभी लॉक डाउन मे रोहतास के एक गांव के एक व्यक्ति से बात हो रही थी। वो बीबीसी रेडियो के अपने अनुभव बता रहे थे और कहने लगे - हमारे पास बचपन से सूचना का यही स्रोत है और आज जो भी थोड़ा बहुत दुनिया को जान पाए, वो बीबीसी के चलते।
हमने उनसे पूछा - आपके यहाँ अखबार नही आता?
जवाब - नहीं
मेरा सवाल - गांव में किसी और के घर?
जवाब - पूरे गांव मे सिर्फ एक आदमी के यहाँ आता है। लेकिन अब वो भी लॉक डाउन मे बन्द है।
सवाल - क्यों?
जवाब - सुबह गांव के पास वाले बाज़ार में अखबार आ जाता है। शाम को जब बाजार से टेम्पो वाला गांव आता था तो अखबार साथ ले आता था।
अब lockdown है, टेम्पो बन्द तो अखबार बन्द।
यानी कम्युनिकेशन, सूचना और यहाँ तक कि ट्रांसपोर्ट तक के लिहाज से बिहार अज़ब गज़ब और मुश्किल राज्य है।
राघोपुर जो पटना से सटा है और CM/DCM की constituency रहा है, वहां भी छोटी छोटी जरूरतों के लिये लोगो को नाव का मुंह ताकना पड़ता है।
2010 से 2018 के बीच चार बार जा चुकी हूँ। पहली बार गयी थी तो हमे अपनी चार पहिया गाड़ी नाव पर चढ़ानी पढ़ी थी। ताकि हम गंगा पार करके राघोपुर जा सके। डर लगा लेकिन बिहार में तो हम बड़े बड़े नालों को सिर्फ एक सकरे से इलेक्ट्रिक पोल (जिस पर आप एक बार मे अपना एक ही पांव रख सकते है) के सहारे भी पार कर चुके है और कर भी रहे है।
राघोपुर मे तो लोग जब सिलिंडर तक लेने के लिये नाव का इस्तेमाल करते थे तो वहाँ पर भी अखबार एक luxury good ही था। अभी के हालात मुझे मालूम नहीं लेकिन मुझे इस बात का 'भरोसा' है कि बहुत परिवर्तन नही आया होगा।
यही हाल भागलपुर के कदवा दियारा का भी था। कोई अखबार नही। शायद विजय पुल बनने के बाद वहां कुछ बेहतर हुआ हो।
ये बड़ा दिलचस्प है कि 2014 से सुन रही हूँ कि बड़े शहर में अखबार पढ़ने वाले लगातार कम हो रहे है लेकिन ग्रामीण भारत के लिये तो अखबार अभी भी एक लक्ज़री, एक विलासिता है।