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 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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कोई शाट बनवा देना!

जगमोहन फूटेला / फोटोग्राफर और टीवी वाले अक्सर प्रदर्शनकारियों को बोल के रखते हैं कि भैया कोई शाट बनवा देना। मैंने देखा है कि प्रदर्शनकारी कुछ धमाल करने के लिए कैमरे आने का इंतज़ार करते हैं। कुछ लोग लेट हो जाएं तो उन के शाट बनवाने का कष्ट दोबारा किया जाता है।
मेरे खुद के एक रिपोर्टर ने गज़ब किया एक बार। एक अफसर मर गया किसी शहर में। प्रेस वाले पंहुचे। उन में ये भी था। अफसर की बीवी रो रही थी। इस ने उसे कहा कि वो चुप हो जाए। वजह भी बताई। कहा कि कैमरे का ट्राईपाड (स्टैंड) लगाने और फिर फ्रेम सेट करने में टाइम लगेगा। ट्राईपाड लगा के कैमरे का फ्रेम भी उस ने जब बना लिया तो उसने उस औरत से कहा, '' आप मेरी तरफ देखते रहना और जैसे मैं मैं इशारा करूं, आप रोना शुरू कर देना।'' आज की मीडिया में ज़्यादातर लोग ऐसे ही हैं। असंवेदनशील और अमानवीय हो जाने की हद तक नौटंकीबाज़ भी। बड़े अजीब किस्से हैं। एक अखबार के फोटोग्राफर ने पंजाब में आतंकवाद के दिनों में देखा कि सिगरेट वाली दुकान पर सब्जी बिकने लगी है। उस ने पूछा उस दुकानदार से कि ऐसा क्यों? उस ने कहा सिगरेट बेच कर गुज़ारा नहीं होता था। सब्जी में अच्छी कमाई हो जाती है। फोटोग्राफर ने पूछा वो बोर्ड है अभी सिगरेट वाला? उस ने कहा, 'हाँ'. फोटोग्राफर ने वो बोर्ड मंगवाया, सब्जियों के साथ रखवाया, फोटो खींचा और फोटो छपी तो नीचे लिखा था कि आतंकवादियों के डर से सिगरेट बेचने वाले सब्जियां बेचने लगे। फोटोग्राफर की फोटो तो बन गई जो न भी बनती तो उसकी तनख्वाह फिर भी उतनी ही रहने वाली थी। लेकिन इस का परिणाम ये हुआ कि आतंकवादियों की ऐसी कोई धमकी न होने के बावजूद उन के डर से पंजाब में सैंकड़ों सिगरेट बेचने वाले बेरोजगार हो गए।

Jagmohan Phutela @

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सम्पादक

डॉ. लीना