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 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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उर्दू मीडिया के दो सौ वर्ष पूरे

उर्मिलेश/ अतीत, वर्तमान और भविष्य. निश्चय ही यह उर्दू पत्रकारिता के संदर्भ में महत्वपूर्ण विषय है, जिस पर गंभीर चर्चा और विचार जारी रहना चाहिए. सिर्फ इसलिए नहीं कि उर्दू पत्रकारिता के दो सौ वर्ष पूरे हो गये, इसलिए भी कि आज उर्दू पत्रकारिता बल्कि यूं कहें उर्दू भाषा के समक्ष भी बड़ी चुनौतियां और संकट दिखाई दे रहे हैं.

हैदराबाद स्थित मौलाना आजाद नेशनल उर्दू विश्वविद्यालय (MANUU) ने 13 से 15 नवम्बर के बीच उर्दू मीडिया: अतीत, वर्तमान और भविष्य विषय पर एक इंटरनेशनल कांफ्रेंस का आयोजन किया. इसमें बड़ी संख्या में उर्दू, हिन्दी और अंग्रेजी के पत्रकार-लेखक जुटे और अलग-अलग सत्रों में भारतीय मीडिया, खासतौर पर उर्दू पत्रकारिता से सम्बद्ध विभिन्न विषयों पर चर्चा की.

भारत में उर्दू की पत्रकारिता हिन्दी-पत्रकारिता से कुछ पुरानी है. उर्दू में भाषायी भारतीय अखबार निकालने की शुरुआत 'जामे जहां नुमा' के साथ सन् 1822 में हुई. हिन्दी का पहला अखबार--'उदंत मार्तंड' इसके चार साल बाद 1826 में छपना शुरू हुआ. दोनों अखबारों की शुरुआत कलकत्ता(कोलकाता) से हुई. हिन्दी की पत्रकारिता अपनी गुणवत्ता में भले ही अंग्रेजी पत्रकारिता से पीछे हो पर अखबारों और टीवी चैनलों के प्रसार और विस्तार के मामले में आगे हो चुकी है. व्यापार-बाजार के मामले में भी वह मालिकों को पसंद आ रही है. लेकिन समाज और अवाम को वह लगातार धोखा दे रही है. कुछ अपवादों को छोड़कर हिन्दी पत्रकारिता की मुख्यधारा आज अवाम और समाज को दरकिनार कर सत्ता और पूंजी के साथ बेशर्मी के साथ खड़ी है.

उर्दू पत्रकारिता का इतिहास अवाम और समाज से उसके गहरे जुड़ाव का आईना है. ब्रिटिश राज में सबसे अधिक जुल्म उर्दू पत्रकारों और पत्रकारिता ने झेली. महज संयोग नहीं कि भारत के पत्रकारिता क्षेत्र में पहली शहादत(1857)एक उर्दू संपादक ने दी. वह मौलवी मोहम्मद बाकर थे. बाद में हिन्दी के पत्रकारों-लेखकों पर भी जुल्म ढाये गये.

इसमें शायद ही किसी की असहमति हो कि भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में उर्दू पत्रकारिता हमेशा गौरवशाली विरासत के रूप में दर्ज रहेगी. पर यह भी सच है कि अनेक कारणों से उर्दू पत्रकारिता आज गहरे संकट में है. उसकी चुनौतियों और समाधान के तरीकों पर बात होनी चाहिए. इस चर्चा में उर्दू, हिन्दी, पंजाबी, बांग्ला, तेलुगू और अंग्रेजी आदि के पत्रकारों, लेखकों और मीडिया से सम्बद्ध अन्य लोगों को भी शामिल होना चाहिए.

इस सिलसिले में हैदराबाद स्थित मौलाना आजाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी(MANUU) ने एक अच्छी शुरुआत की है. देश के अन्य संस्थानों को इस सिलसिले को आगे बढाना चाहिए.

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सम्पादक

डॉ. लीना