इन भक्तिविभोर तस्वीरों ने पीड़ित मानवता की कितनी कहानियों को छपने से रोक दिया, इसका हिसाब कौन लेगा?
दिनेश कुमार/ पटना के अखबार कई दिनों तक आस्था के सागर में डूबे रहे। एक अखबार ने छठ पर अर्घ्यदान से संबंधित छोटी-बड़ी और विशाल कुल 53 तस्वीरें छापीं, जिनमें मुख्यमंत्री की दो तस्वीरें थीं। एक अन्य दैनिक पत्र में छठ की 48 तस्वीरें प्रकाशित की गईं।
इन दो बड़े परस्पर स्पर्धी अखबारों में केवल एक-एक तस्वीर प्रदूषण से सचेत करने वाली थी।
सारण के सीढ़ी घाट पर रेत कलाकार अशोक कुमार और उनकी टीम ने गंगाजी को पालिथिन से बचाने की अपील करती जो कलाकृति बनायी, उसे एक अखबार ने 10 वें पेज पर सबसे नीचे छापने की कृपा की।
एक अन्य अखबार ने पटना सिटी के घाट पर कचरा फैलने की फोटो छापने का भी साहस दिखाया।
जिस दौर में विकास, धर्म और लोक आस्था, सब के नाम पर होने वाला सकल प्रदूषण सूर्य के दर्शन में बाधक होने लगा हो, न्यूज फोटोग्राफरों के कैमरे ( वीडियो) डीजे के शोर से लेकर प्लास्टिक कप के कचरे तक (प्रदूषण) की अनदेखी क्यों करते रहे?
छठ के फोटो कवरेज में पत्रकारिता कम, आस्तिकता अधिक दिखाई गई।
इन भक्तिविभोर तस्वीरों ने पीड़ित मानवता की कितनी कहानियों को छपने से रोक दिया, इसका हिसाब कौन लेगा? क्या पाठक की यह हैसियत रह गई है कि वे आस्तिकता थोपे जाने का प्रतिकार कर सकें?