वीरेंद्र यादव/ बातचीत की शुरुआत में छोटी-सी कहानी। बेटा है आदित्य। एक साथी आये थे घर पर। उन्होंने आदित्य से कहा कि पापा को बोलो कि पत्रिका में सिर्फ विज्ञापन निकालें। उसका उत्तर था- पत्रिका में पढ़ने के लिए खबर भी होनी चाहिए न।
एक और छोटा-सा दृष्टांत। 17 तारीख की बात है। हम विधान सभा सत्र के दौरान के लिए बनी पार्किंग में अपनी मोटरसाइकिल लगा रहे थे। गाड़ी को स्टैंड पर लगाया तो देखा कि वीरेंद्र यादव न्यूज के दो अंकों की कॉपी पड़ी हुई है। शायद किसी ने अपनी गाड़ी की डिक्की को साफ करते हुए पत्रिका की कॉपी के साथ कई सामग्री फेंक दी थी। उसी दिन हम शाम को फिर विधान सभा गये। गाड़ी लगाने फिर उसी जगह पर पहुंच गये। पत्रिका यथावत पड़ी हुई थी।
दो दृष्टांत हैं। दोनों में कोई समानता नहीं है। लेकिन दोनों का विषय वस्तु ‘वीरेंद्र यादव न्यूज’ ही है। दोनों के अलग-अलग संदर्भ हैं। पर, दोनों की आत्मा है खबर। पहली कहानी में यह बताया गया है कि विज्ञापन की ताकत ही खबर से है। दूसरी कहानी यह बताती है कि प्रिंट की अपनी ताकत है। वह मुख्यमंत्री के चैंबर में हो या किसी पार्किंग में पड़ा हो। खबर हर जगह बोलती है।
यह कहां हम भी कहानी में उलझ गये। हम बात कर रहे हैं विज्ञापनकारिता की। क्या आज की पत्रकारिता विज्ञापनकारिता हो गयी है। हमने कई प्रिंट मीडिया हाउसों में काम किया और अब अपना ही प्रिंट चला रहे थे। यह समझना मुश्किल हो गया है कि खबर और विज्ञापन के बीच कितनी दूरी रह गयी है। खबर ही विज्ञापन है या विज्ञापन ही खबर है। हम सिर्फ अपने अनुभव की बात कर रहे हैं।
मीडिया का धंधा पूंजी का कारोबार है और हम चंदा से मीडिया चला रहे हैं। इसलिए बड़े अखबारों के सरोकार और वीरेंद्र यादव न्यूज का सरोकार एक नहीं हो सकता है। बड़े अखबारों का सरोकार मुनाफा है और हमारा सरोकारों पाठकों की भावनाओं से है। पाठकों के व्यापक हित से है। लेकिन दोनों के लिए खबर महत्वपूर्ण है। बाजार के सरोकार के लिए भी और समाज के सरोकार के लिए भी। इसके बावजूद पत्रकारिता के विज्ञापनकारिता होने पर सवाल उठा रहे हैं।
मीडिया हाउस के मुख्यालयों में संपादक सरकार के साथ समन्वय बनाने के लिए रखे जाते हैं, जबकि ब्यूरो कार्यालयों में प्रभारी या रिपोर्टर विज्ञापन के लिए रखे जाते हैं। आज कोई भी संपादक या रिपोर्टर खबर के लिए नहीं रखा जाता है। उसकी सफलता का मानदंड खबर नहीं, बल्कि विज्ञापन का बजट से तय होता है। इस परिप्रेक्ष्य में हम उसी सवाल पर लौटते हैं कि क्या खबर का महत्व कम हो गया है?
इस संबंध में हमारा मनाना है कि खबर का महत्व कम नहीं हुआ है, बल्कि खबर लिखने वाले की भूमिका का विस्तार हो गया है। अब संपादक ही विज्ञापन मैनेजर हो गया है और रिपोर्टर ही विज्ञापन एजेंट हो गया है। इसलिए पत्रकारिता ही विज्ञापनकारिता हो गयी है। अखबार चलता है विज्ञापन से, लेकिन बिकता है खबरों के लिए। मुफ्त में बंटने वाली पत्रिका को भी लोग पढ़ते हैं खबरों के लिए।
इस संदर्भ में हम अपनी भूमिका का विश्लेषण करते हैं तो लगता है कि अखबार छोटा हो या बड़ा, नियमित बनाये रखने के लिए चुनौतियां एक समान हैं। पाठकों के बीच प्रासंगिक बने रहने की चुनौतियां एक समान हैं। खबर को जीवंत बनाये रखने की चुनौतियां एक समान हैं।
हमारे एक बड़े भाई हैं। हमारी विज्ञापन रणनीति को लेकर उन्होंने कहा कि यह तो पाठकों के समक्ष हाथ फैलाने के बराबर हुआ। तो हमने कहा कि बड़े अखबार भी तो यही करते हैं। उन्हें भी संस्था या सरकार के सामने हाथ ही फैलाना होता है।
इलेक्ट्रानिक मीडिया और यूट्यूब के दौर में प्रिंट की प्रासंगिकता यथावत बनी हुई है। बड़े अखबार भी डिजीटल प्लेटफार्म पर आ रहे हैं, लेकिन उनका प्रिंट का कारोबार भी फैल रहा है। नयी तकनीकी के साथ नये पाठक आ रहे हैं तो मीडिया हाउस भी उस नये पाठक वर्ग की सुविधा के अनुसार तकनीकी का उपयोग कर रहा है।
हमने शुरू में दो घटनाओं का जिक्र किया था। दोनों घटनाओं का सार यही है कि खबर की सत्ता सर्वोपरि है। प्रिंट कूड़े में भी फेंका हो तो भी अपनी खबरों के साथ सीना ठोकर अपने होने का अहसास कराता है। वीरेंद्र यादव न्यूज में खबर भी है और खबर की जीवतंता भी।