पत्रकारिता का हाल
अब अपने ही अख़बार में किसी किताब की समीक्षा के लिए फीचर डेस्क इंचार्ज पैसे माँगने लगे। अभी फेसबुक पर एक प्रसिद्ध समाचार पत्र की आईडी से फ्रेंड रिक्वेस्ट आयी तो उसे मैंने स्वीकार कर लिया और समीक्षार्थ पुस्तकें भिजवाने के लिए उनसे पोस्टल अड्रेस चाहा। दरअसल मैं जानना चाहता था कि उस अख़बार के किस एडिशन से वह आईडी संचालित है। पता मिला और यह भी पता चला कि अख़बार की उस आईडी को फीचर डेस्क इंचार्ज ही संचालित कर रहे हैं/कर रही हैं। उन्होंने कहा कि किताब की एक प्रति के साथ समीक्षा भी भेज दें, तभी छपेगी। समीक्षा के साथ किताब मिलने पर ही समीक्षा छपेगी। मैंने उनसे निवेदन किया कि किताबों की दो-दो प्रतियाँ भिजवा देते हैं, आप समीक्षा स्वयं करवा लें। इस पर उनका कहना था कि किताब की दो प्रतियाँ भेजने के साथ आपको प्रति पुस्तक पाँच सौ रुपये भुगतान करना होगा और एक महीने का इंतज़ार भी। मैं चौंका कि क्या पेड न्यूज की तरह अख़बार साहित्यिक पन्नों पर भी पेड रिव्यूज छापने लगे? मैंने लगे हाथ खाता नंबर भी माँग लिया तो फीचर डेस्क इंचार्ज ने अपना व्यक्तिगत खाता नंबर दे दिया। मैंने जब इसकी शिकायत अख़बार के प्रबंधन अौर प्रधान संपादक से करने की बात कही तो उनका कहना था कि यह समीक्षा चूँकि व्यक्तिगत तौर पर होगी तो यह जो भुगतान है, वह बतौर समीक्षक उन्हें मानदेय होगा। भुगतान लेकर अपने ही अख़बार में समीक्षा लिखना व प्रकाशित करना, यह किस तरह की पत्रकारिता कही जाएगी? क्या अख़बार वाले अपने कर्मियों को अब वेतन नहीं दे रहे हैं जो उन्हें आय के इस तरह के स्रोतों पर निर्भर रहना पड़ रहा है? जिस किताब की समीक्षा पैसे लेकर लिखी जाएगी, क्या उस पर समीक्षक तटस्थ रह सकता है? इस तरह की समीक्षा को अख़बार में जगह देना उस अख़बार के पाठकों के साथ कैसा व्यवहार माना जाएगा? यह टिप्पणी किसी की मान-मर्यादा को आहत करने के लिए नहीं लिखी जा रही है, अत: नाम को गोपनीय ही रखा गया है। मूल बात है कि हमारे दौर की पत्रकारिता ने कितना 'विकास' कर लिया है, यह विचार करने योग्य है।
Rashmi Prakashan की वाल से