एम. अफसर खां सागर/ ‘प्राचीन संस्कृति में एकता के सूत्र’ पुस्तक में डा एस के मिश्रा ने सामाजिक सौहार्द के सूत्रों को प्राचीन संस्कृति के बीच से खोजने का प्रयास किया है।
डा मिश्रा ने पुस्तक को आठ अध्यायों में बांट कर समझाने का प्रयास किया है कि प्राचीन संस्कृति में जो एकता के सूत्र बिखरे पड़े हैं उन्हे सहेज कर साम्प्रदायिक विकारों से मानवता को बचाया जा सकता है। पुस्तक के पहले अध्याय ‘भारतीय संस्कृति में धर्म का महात्म्य ’ शीर्षक से लेखक बतलाता है कि पहले धर्म को वास्तविक रूप से समझने की जरूरत है। धर्म मनुष्य के अन्दर स्थायी तत्व है। मानव धर्म किसी जाति या सम्प्रदाय का धर्म नहीं बल्कि यह श्रेष्ठ मानवीय गुणों पर आधारित जीवन पद्धित हैं जो उसे आन्तरिक सच से जोड़ता है। अतः धर्म के आधार पर मानव जाति में भेद-भाव सम्भव नहीं है। उपासना, आस्था पृथक हो सकती है लेकिन यह मानव धर्म पर प्रभावी नहीं होनी चाहिए। लेखक भारतीय संविधान में धार्मिक स्वतंत्रता देने की चचा्र करते हैं लेकिन धम्र को रेखांकित न करने पर भी सवाल उइाते हैं। वह मार्क्स की धर्म के आधार पर वर्ग-संर्ष की अवधारणा में बुनियादी कमी देखते हैं।
डा एस के मिश्रा क्रमशः वैदिक, उत्तर वैदिक, शुक, गुप्त व हर्षकालीन धार्मिक-सांस्कृतिक स्वर तथा गतिविधियों की प्रमाणिक प्रस्तुति करते हैं। लेखक के मतानुसार प्राचीन भारत में व्यक्तित्व उत्थान हेतु जिन सदगुणों पर बल दिया गया वही धर्म है। सचरित्रता, बन्धुता, दयाशीलता, सत्य, क्षमा, अतिथि सत्कार, ईर्ष्या-क्रोध से मुक्ति आदि गुणों को धारण करना धर्म है। इसमें उपासना, इष्ट या ग्रन्थ की विशेषता की आवश्यकता नहीं है। समय के साथ इसमें विविधता व जटिलता बढ़ी है। वेदों को प्रमाण मानकर वैष्णव, शैव सम्प्रदाय बने प्रतिक्रिया में आगे चलकर बौद्ध, जैन आदि धर्मों का प्रादुर्भाव हुआ। इसमें भी सम्प्रदाय बने। बहुत विकसित हुए फिर भी उसी गति से सिमट गये। अन्ततः जिसे ब्राह्म्ण धर्म कहा गया।
लेखक प्राचीन भारतीय संस्कृति में परिस्थित के अनुरूप संशोधन को भी विशेष गुण के रूप में देखते हैं। विभिन्न ग्रन्थों के माध्यम से मनिषयों-चिन्तकों ने समय के अनुसार बदलाव की सुझाव दिये। इसमें विकृति व जटिलता तब शुरू हुई जब से संसोधन की परम्परा टूट गयी। जाति व्यवस्था कर्म पर आधारित भी, ठीक था। जन्म के आधार पर हो गयी औचित्यहीन थी लेकिन इसमें संशोधन करने का प्रयास नहीं हुआ।
‘साम्प्रदायिक सदभाव और प्राचीन संस्कृति ’ शीर्षक से लेखक लिखता है कि वास्तव में धर्म दर्शन किसी भी जाति की सीयता और संस्कृति का दपर्ण और उसके चिंतन का परिचायक होता है। बहुदेववाद से लेकर एकेश्वरवाद और फिर अन्तोगत्वा शुद्धतम अद्वैत का विकास भारतीय देवशाला एवं धर्म दर्शन की विशेषता रही है। साम्प्रदायिक सदभाव से मुक्त हमारा प्राचीन व गौरवशाली इतिहास अत्यन्त समृद्ध रहा। आज उसी चेतना से प्रेरणा पा्रप्त करने का समय है।
जीवन के अन्तिम पुस्तक भूमिका में प्रख्यात साहित्यकार विष्णु प्रभकर जी ने लिखा है कि धर्म के आधार पर भेद-भाव अनुचित है। उनका मानना है कि सभी धर्म मुलतः एक हैं। धर्म की जड़ में एकता निवास करती है। वर्तमान समय में राज्य की अवधारणा के मूल भेद धर्म की सर्वोच्चता को हल्के ढ़ंग से लिया है। धर्म के नाम पर सामप्रदायिकता से विभाजन रेखा खींची जा रही हैं इसमें सर्वधर्म सम्भाव का लोप हो रहा है।
पुस्तक के आशीश वक्तव्य में स्वामी अड़गड़ानन्द जी ने प्राचीन संस्कृति में एकता के सुत्र को अत्यन्त तर्कसंगत व विद्वता पूर्ण रेखंकित किया है। आपके अनुसार सृष्टि के प्रारम्भ से ही सत्य का आभव नहीं रहा, सत्य केवल आत्मा हैं आत्मा को द्रष्टास्वरूप से परमात्मस्वरूप में प्रतिस्थापित करने की सम्पूर्ण साधना पद्धित ही धर्म है। भेद-भाव के चलते समाज दिन-ब-दिन बिखरता जा रहा है। मैं तो कहता हूं कि मनु की संतान होने के कारण हम सभी मनुज कहलाते हैं। एकता की बात अपनी प्राचीन संस्कृति से हमें खोजनी चाहिए।
पुस्तक न ही प्राचीन संस्कृति की कोरी प्रशंसा व गौरव गाथा है और न ही इसे ऐतिहासिक दस्तावेज माना जाना चाहिए। बल्कि यह वर्तमान समय की बेहद गम्भीर त्रासदी को रोकने और मानवता को बचाने का संदेश है। साम्प्रदायिकता द्वेष के इस चरम पर यह पुस्तक अपनी सार्थकता सिद्ध करती नजर आती है।
पुस्तक- प्राचीन संस्कृति में एकता के सूत्र
लेखक- डा0 एस0 के0 मिश्रा
प्रकाशक- पुस्तक पथ, 147/21/7, सनातन मिस्त्री लेन, उडीयापाडा, सलकीया, हावडा-6, पश्चिम बंगाल
मूल्य- 350 रूपया मात्र (पेपर बैक संस्करण)
समीक्षक- एम. अफसर खां सागर समाजशास्त्र में परास्नातक हैं। स्वतंत्र पत्रकार व युवा साहित्यकार के रूप में जाने जाते हैं । राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न अखबारों और पत्रिकाओं के लिए लेखन के साथ ही जनहित भारतीय पत्रकार एसोसिएशन के वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं