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____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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प्रमुख चुनौतियां पर दृष्टिपात

पुस्तक “इक्कीसवीं सदी में भारत के सरोकार”

न्याय मूर्ति गोविन्द माथुर करेंगे विद्या भवन में विमोचन

नन्द किशोर शर्मा / “इक्कीसवीं सदी में भारत के सरोकार” एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है। इस सदी के नीति निर्माताओं के सामने शिक्षा, स्वास्थ्य, बेरोजगारी और मानवाधिकारों की चिन्ताएं मुंह बाये खड़ी है। लैंगिक समानता और संवेदनशीलता का प्रश्न तेजी से उभर रहा है। ऐसे समय में इस सदी के समाज विज्ञानी और विचारक क्या सोचते है? क्या समझते है? उसे एक ग्रन्थ में रख प्रस्तुत करना बड़ा दुरूह कार्य है, जिसे सम्पादक द्वय डा. एच.के. दीवान और डा. वेददान सुधीर ने पूरे मनोयोग से किया है।

पुस्तक में बीस महत्वपूर्ण विचारकों ने मानव समाज और सभ्यता, डा. अम्बेडकर और भारतीय लोकतंत्र, इक्कीसवीं सदी की भारत की चिन्ताएं, चुनौतियां, समानता, संरचना, ग्रामीण सरोकार, शिक्षा की गुणवत्ता, भारत का शैक्षिक परिदृश्य, बहुभाषिता और अंग्रेजी, प्रजातंत्र और गांधी दृष्टि, गांधी एक पुनर्विचार, गांधी विचार और चुनौतियां, हिंसा के तर्क और तर्कों की हिंसा, वैश्विक आर्थिक आधिपत्य और अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद जैसे महत्वपूर्ण विषयों पर दृष्टिपात किया है, जो इक्कीसवीं सदी की प्रमुख चुनौतियां है।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र प्रोफेसर शरद बेहर ने अपने विमर्श में कहा है कि अल गोर यू.एस. राष्ट्रपति का चुनाव हार गये, किन्तु पूरी दुनिया को वैश्विक तपन और आसन्न जलवायु परिवर्तन के बारे में असुविधाजनक सच्चाई बताने में कामयाब रहे है। इसी प्रकार विख्यात अर्थशास्त्री ज्यां डेज ने अपने लेख में कहते है कि डा. भीमराव अम्बेडकर के लोकतंत्र की संकल्पना में दी गयी परिभाषा बहुत सुन्दर व प्रेरणास्पद है, जिसमें डा. अम्बेडकर कहते है ‘यह शासन की ऐसी पद्धति है, जिससे बिना खून खराबे के लोगों के आर्थिक एवं सामाजिक जीवन में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाए जा सकते है।’

माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय के पूर्व उपकुलपति रामशरण जोशी ने अपने आलेख में इक्कीसवीं सदी की चिन्ताओं का जिक्र करते हुए कहते है ‘इण्डिया’ भले ही खूद को गतिमान समझ ले, लेकिन ‘भारत’ आज भी निम्न व मध्यम गति अवस्था के दौर से गुजर रहा है। सवाल और चिन्ताएं साथ-साथ उभर रही है: अगली सदी में किसकी जीत होगी इंसान या प्रौद्योगिकी? हिलाल अहमद अपने लेख में कहते है हिंसा का विचार सभ्य कहे जाने वाले समाज से पूरी तरह जुड़ा हुआ है। ऐसे में हिंसा को नकारात्मक बताने से पहले यह जरूरी है कि उन ‘सभ्य’ कही जाने वाली सामाजिक संरचनाओं को परख लिया जाये। डा. थामस अकादमीक और विश्वविद्यालयी स्तर पर गांधी अध्ययन को अपर्याप्त और सतही बताते हुए अपने लेख में बताते है दक्षिणी अफ्रीका से भारत लौटने का गांधी का शताब्दी वर्ष नजदीक आ रहा है। शायद यह सबसे उपयुक्त समय है जब हम उनके गृह देश में गांधी और उनके अनुयायियों की विरासत पर दृष्टि डाले वरना सरकारों ने तो उन्हें राष्ट्रपिता के तौर पर अपना संरक्षक और संत के रूप में तब्दिल कर लिया है। वे लोग उनके विचार और सिद्धान्त की परवाह नहीं करते वरन् चुनाव जीतने में इस्तेमाल करते है।

पुस्तक प्रो. कमल सिंह राठौड़, प्रो. नरेश भार्गव, प्रो. के.एल. शर्मा, प्रो. अरूण चतुर्वेदी, प्रो. कृष्ण कुमार, डा. एच. के दिवान, रमाकान्त अग्निहोत्री, प्रो. अरविन्त फाटक, प्रो. नरेश दाधिच, आशा कौशिक, गांधीवादी रियाज तहसीन, डा. यतिन्द्र सिंह सिसोदिया, पी.सी. माथुर, डा. खेमचन्द माहवर तथा डा. सुरेन्द्र सिंह के लेख संकलित है। पाठकों के लिए यह पठनीय दस्तावेज है।

विद्या भवन हीरक जयन्ती के अवसर पर प्रकाशित 368 पेज की पुस्तक का प्रकाशन सामयिक बुक्स नई दिल्ली ने किया है। उक्त पुस्तक का विमोचन विद्याभवन टीचर्स कालेज, उदयपुर में 4 मई को प्रातः 11.00 बजे राजस्थान उच्च न्यायालय के न्यायाधीश - न्यायमूर्ति गोविन्द माथुर करेंगे।

पुस्तक  :    “इक्कीसवीं सदी में भारत के सरोकार”

सम्पादक द्वय : डा. एच.के. दीवान और डा. वेददान सुधीर

प्रकाशक :  सामयिक बुक्स, नई दिल्ली

 

 

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सम्पादक

डॉ. लीना