अरविंद भारती की किताब “वे लुटेरे हैं
शहंशाह आलम/ यह विदा कहने का वक़्त है।
इसलिए हे राजन, आप चौंके अथवा चीहुँकें अथवा विस्मय में न पड़ें।
इसलिए हे राजन, यह वक़्त कवि अरविंद भारती को विदा कहने का वक़्त नहीं है। न इनकी कविता की विदाई की घोषणा अभी की जानी है। विदाई तो अच्छे मूल्यों को दिया जाना है आपके द्वारा।
वे अच्छे मूल्य हैं क्या, जिनकी विदाई सामने खड़ी दिखाई देती है। इसकी व्याख्या बेहतर तरीक़े से अज्ञेय ने की है। अज्ञेय का कथन है, ‘कोई भी अत्याचार ऐसा नहीं है, जिसके साथ मानव-मूल्य नहीं जोड़ा गया। मूल्यों के नाम पर घर फूँके गए हैं, युद्ध लड़े गए हैं, पुस्तकालय जलाए गए हैं, धर्म-स्थान ध्वस्त किए गए हैं, सामूहिक बलात्कार हुए हैं, जातियों को निर्मूल किया गया है।’ अज्ञेय का यह कथन जिन समयों को, जिन संदर्भों को, जिन मूल्यों को लेकर लिपिबद्ध किया गया हो, यह कथन है कालजयी। कालजयी इस अर्थ में कि आज यही सबकुछ तो अपने मुल्क में हो रहा है।
सत्ताएँ आती-जाती रही हैं। सत्ताओं के साथ मानव-मूल्य भी आते-जाते रहे हैं। समस्या यही है कि अब सत्ता का अर्थ मात्र यह रह गया है कि जो जितना बड़ा निरंकुश है, उसको सत्ता का उतना ही बड़ा पद दे दिया जाता है। पद देने से पहले बस इसी बात की माप-तौल की जाती है कि पिछली दफ़ा सत्ताधीश बनकर उस व्यक्ति ने जनता को कितना आक्रांत किया। या फिर, कितना दबाया, कितना चपाया, कितना सताया। ऐसा करने में अगर उससे कोई कोताही हुई है, तो उसको उस पद से हटाकर किसी दूसरे को उस पद पर बैठाया जाता है, जो व्यक्ति देश के लिए ज़्यादा-से-ज़्यादा घातक साबित हो। और सत्ता के पीछे रहकर जो विचारधारा सत्ता चला रही होती है, उसका मापक-यंत्र बस इतना ही-सा तो रहता है कि मानव-मूल्यों को जितना ध्वस्त किया जा सकता है, कर लिया जाए। ऐसे राजनों को भविष्य में अत्याचार करने का इतना सुंदर मौक़ा फिर मिले-न मिले।
अरविंद भारती को यह बात अच्छी तरह से मालूम है कि मानव-मूल्यों को लूटनेवाले ऐसे डाकू लोग देश में अपना नया काला इतिहास बनाना चाहते हैं। वे ऐसी कूटनीति और राजनीति तैयार करना चाहते हैं, जिससे हर दुर्बल परेशान रहे और हर मालदार ख़ुशहाल, ‘उन्होंने / हमारे हिस्से की / रोटियाँ छीनीं / हमें मारा / हमें पीटा / हमें ग़ुलाम बनाया / हमारी हत्या की (वे लुटेरे हैं, पृष्ठ : 13)।’ अरविंद भारती की कविता ध्वस्त किए जा रहे मानव-मूल्यों के बचाव की कविता है। ऐसी ही कविता इस बात की संभावना बचाकर रखती है कि जो संशय मनुष्य-जीवन में भरा जाता रहा है, उस संशय से मुक्ति कविता दिलाती चली आ रही है, ‘यक़ीन मानो / वह अब भी नहीं देखता तुम्हें / चाहे जितनी भी बजाओ घंटी / कराओ जितनी भी कथाएँ / लगाओ कितने भी चक्कर / मंदिरों के / तीर्थों के / अगर वह है / तो वह तुम्हारे लिए नहीं बना (तुम्हारे लिए नहीं बना, पृष्ठ : 49)।’
हर कवि के गिर्दो-पेश यानी हर कवि के आसपास हत्यारों का ऐसा हुजूम-सा खड़ा किया जा रहा है, जिस हुजूम को देखकर हर कवि थोड़ा डरे, थोड़ा घबराए, थोड़ा परेशान रहे। अरविंद भारती डरने, घबराने या परेशान होने वाले कवियों में नहीं हैं। मगर सत्ता में बैठे हुए लोगों को लगता है कि अरविंद भारती जैसे कवियों को डरा-धमकाकर इनका लबो-लहजा अपने पक्ष में किया जा सकता है। यह बात दीगर है कि आज हमारे आसपास के बहुत सारे कवियों के साथ-साथ कथाकार भी, आलोचक भी, समीक्षक भी, रंगकर्मी भी, सिनेमाकर्मी भी, संस्कृतिकर्मी भी, मुशायरेबाज़ भी, इतिहासकार भी, ड्रामानिगार भी उसी हुजूम का पक्ष लेते हुए दिखाई देते हैं, जो अत्याचारी सत्ता का समर्थक हुजूम है। इन समर्थकों को यही लग रहा है कि बाक़ी सब कोई मार डाले जाएँगे, बचे होंगे बस वे और उनके हत्यारे आका। बाक़ी सारी स्त्रियों का बलात्कार कर लिया जाएगा, बची होंगी बस उनकी स्त्रियाँ। बाक़ी सारे बच्चे मार डाले जाएँगे, बचे होंगे बस उनके बच्चे। ऐसा किसी कथा-पटकथा में हुआ है भला। अरविंद भारती तभी सवाल करते हैं, ‘पशु काटे जाने पर्व / फाँसी की माँग करने वालो / लाठी, डंडा लेकर / सड़क पर उतरने वालो / मैं तुमसे पूछता हूँ / हाँ तुमसे / जब काटे जाते हैं / हाथ-पाँव दलितों के / कर दिया जाता है छलनी / उन्हें गोलियों से / तब तुम सब / कहाँ चले जाते हो (बताओ मुझे तुम, पृष्ठ : 18)।’ संग्रह की अन्य कविताओं में दोमुँहे लोग, क्योंकि तुम दलित हो, मुर्दे, दर्द का समुंदर : तीन कविताएँ, प्रतिक्रिया, धर्मयोद्धा, ज़मीर, हत्यारे, दैव योग, अबके बरस, नया सवेरा, जागो, सिर्फ़ वे ही लड़ेंगे, तुम्हारे लिए नहीं बना, गठजोड़, मेरी कहानी में, ग़ुस्सा, नर्क, कलंक, रंग आदि कविताएँ हमें यथार्थ से रू-ब-रू कराती हैं। इस प्रकार से देखें तो अरविंद भारती का यह नया संग्रह वे लुटेरे हैं की कविता उन आदमियों की कविता है, जिनके जीवन में हमेशा पतझड़ ही पड़ा रहता है, बहार का मौसम नहीं आता। बहारें वैसे भी अब क़िस्सा भर होती जा रही हैं, ‘वे / लुटेरे की तरह आए / मगर लुटेरे नहीं थे / लुटेरों के भी कुछ उसूल होते हैं (धर्मयुद्ध, पृष्ठ : 15)।’
अरविंद भारती धारदार कविता के लिए जाने जाते हैं। इनका पहला संग्रह युद्ध अभी जारी है की कविता अपनी धार के लिए अब भी याद की जाती है। अपने इस दूसरे संग्रह वे लुटेरे हैं में अरविंद भारती ने धारदार कविता के अलावा कुछ प्रेम कविता भी संगृहीत की है। यह सच है, प्रेम हमको मौसमे-बहार की याद दिलाता है। ऐसी रात की याद दिलाता है, जो हमारे दिलों में उतरती है। लेकिन एक सच यह भी है, आदमी अब एक अजीब तरह के डर में जी रहा है। बावजूद इसके, अरविंद भारती प्रेम कविता इस ख़ातिर पाठकों को सौंपते हैं कि आदमी को डर से ज़रा देर के लिए ही सही, निजात तो मिले, ‘मैंने प्रेम लिखा / और कुछ नहीं / सिर्फ़ और सिर्फ़ प्रेम / एक बूँद गिरी / उसके पीछे दूसरी / फिर तीसरी (प्रेम, पृष्ठ : 76)।’ संग्रह में प्रेम शीर्षक आठ कविताएँ हैं। अलविदा, फटा हुआ पन्ना, अगर तुम न होती, प्रेम कविता, डूबा हुआ हूँ, प्रेम जलना है, ख़ाली पन्ने प्रेम के, नेह की डोर टूटने से पहले, मैंने लिखी प्रेम कविता, पहले प्रेम की बारिश, डायरी शीर्षक सभी कविताएँ अलग हुनर से लिखी गईं प्रेम कविताएँ हैं, जो पाठकों को पसंद आएँगीं।
अरविंद भारती की कविता को पढ़ते हुए कुमार पाशी साहब का एक शे’र याद आ रहा है। उन्होंने कहा है, ‘भरी बहार है फिर भी लुटा-लुटा-सा हूँ / इसी सबब से मैं पतझड़ की राह तकता हूँ।’ अरविंद भारती की कविता इसी सिलसिले की कविता है। संग्रह की कविताओं को पढ़कर आप भी कुछ ऐसा ही महसूस करेंगे। और हे राजन, आप जो प्रेम के शत्रु हैं, आप भी इन कविताओं को पढ़कर विचलित ज़रूर होंगे, परेशान भी और बेचैन भी।
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वे लुटेरे हैं (कविता-संग्रह)
कवि : अरविंद भारती
प्रकाशक : रश्मि प्रकाशन, 204, सनशाइन अपार्टमेंट, बी-3, बी-4, कृष्णा नगर, लखनऊ – 226023 /
मूल्य : ₹150
मोबाइल संपर्क : 09027147797