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‘अक्करमाशी’ के अपराधी को भी दंडित करवाएं चित्रा मुद्गल

'कादम्बिनी' पत्रिका के दिसंबर' 2019 अंक में लेखिका चित्रा मुद्गल के आवरण कथा पर कैलाश दहिया की टिप्पणी   

कैलाश दहिया / 'कादम्बिनी' पत्रिका के दिसंबर' 2019 अंक में द्विज लेखिका चित्रा मुद्गल का आवरण कथा के अंतर्गत बिना शीर्षक का लेख छपा है। इसमें इन्होंने अपने उपन्यास 'पोस्ट बॉक्स नंबर 203- नाला सोपारा' का मर्सिया गाया है। मर्सिया गाते -गाते ये 'दलित आत्मकथाओं' और 'दलित विमर्श' के विरोध पर उतर आई हैं। दरअसल, उपन्यास चर्चा तो इन का बहाना मात्र है, असली उद्देश्य तो इन का दलित विरोध ही है। इन का यह दलित विरोधी चेहरा सामने आने में थोड़ी देरी जरूर हुई है लेकिन, यह विरोध हर द्विज के भीतर तक धंसा रहता है। फिर, ये कोई अलग थोड़े ही हैं।

असल में द्विजों की तरफ से ये तब मैदान में उतरी हैं जब सब पिट- पिटाकर अपने - अपने बिलों में घुस चुके हैं। इन की देरी से उतरने की वजह यह भी हो सकती है कि इन्हें द्विजों ने भी विमर्श के लायक ही ना माना हो। वैसे भी, रमणिका गुप्ता, प्रभा खेतान और मैत्रेयी पुष्पा के रहते किसी को जगह कहां मिलने वाली थी। इधर, जब दलित विमर्श ने पूर्णता प्राप्त कर ली है और यह 'आजीवक' में बदल चुका है तब दलित विरोध की आवाज नक्कारखाने में तूती ही होनी है। आज सारा साहित्य जगत दलित आत्मकथाओं के समक्ष नतमस्तक है तब इन्हें दलित आत्मकथाओं में एकरूपता दिख रही है!

इन्होंने दलित आत्मकथाओं को ले कर कहा है, 'दलितों की जो आत्मकथाएं आईं उनमें उन्होंने अपना ही रोना रोया।'  बताया जाए, जब कोई दलित ‘आत्मकथा’ लिखेगा तो ट्रांसजेंडर के बारे में तो लिखेगा नहीं। दलित आत्मकथाकार तो वही लिखेगा जो उसके साथ हुआ। जिस व्यवस्था ने दलित को इंसान ही नहीं समझा उसका कच्चा चिट्ठा ही लिखेगा। इस लिखने में उस का घर- परिवार, पड़ोस, गांव- समाज और व्यवस्था तो आएगी ही। इस रूप में दलित आत्मकथाओं में ब्राह्मणी  व्यवस्था संसार की सबसे क्रूरतम व्यवस्था के रूप में सामने आई है। द्विजों को दलित आत्मकथाओं ने बैकफुट पर धकेल दिया है। दरअसल दलित आत्मकथाओं में द्विजों को अपने पुरखों के ही कारनामे दिखाई नहीं दे रहे बल्कि इन में इन्हें अपनी शक्ल भी दिखाई देने लगी है। ऐसे लगता है लेखिका ने महान आजीवक चिंतक डॉ. धर्मवीर की घरकथा 'मेरी पत्नी और भेड़िया' पढ़ ली है। इसी से ये बौखला रही हैं।

इनका विरोधाभास देखिए, जब इन्हें साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला तो इन्होंने कहा, "यह वंचित तबकों के प्रति मेरी सामाजिक प्रतिबद्धता और उससे उपजे मेरे साहित्य का सम्मान है।" (देखें, शब्दों का उत्सव.. पोस्ट बॉक्स नंबर 203 - नाला सोपारा, शरद सिंह,   samkalinkathayatra.blogspot.com)

इधर, दलितों की जो सच्ची आत्मकथाएं आई हैं उस पर ये रोना रो रही हैं, यही है इन कि वंचित तबकों के प्रति मेरी सामाजिक प्रतिबद्धता?   सोचा जा सकता है इन की सामाजिक प्रतिबद्धता कैसी है!  इसे द्विजों की कथनी-करनी के अंतर के रूप में देखा जाना चाहिए। इसमें और भी अधिक आपत्ति की बात यह है कि नकली कथा - कहानियों को पुरस्कारों से नवाजा जा रहा है, जबकि इस देश में दलितों के साथ जो अमानवीय व्यवहार और अपराध हुए हैं उस का पर्दाफाश करती सच्ची आत्मकथाओं को लेकर चुप्पी साध ली गई है।

क्या चित्रा जी को बताना पड़ेगा कि द्विज व्यवस्था का अर्थ ही दलित से बलात्कार होता है। इस व्यवस्था में दलित का सांस लेना भी दूभर रहा है। आज भी दिन-प्रतिदिन दलितों पर अत्याचार की खबरें थमने का नाम ही नहीं ले रही, क्या यह वर्ण व्यवस्था की देन नहीं है? जहां तक बलात्कार की बात है तो दलित स्त्रियों को प्लानिंग के तहत बलात्कार का शिकार बनाया जाता है। आज भी दलित की बेटी का इसलिए बलात्कार कर दिया जाता है कि वह पढ़ने क्यों जा रही है। गांव के सामंतों की की नजरें दलितों की स्त्रियों की तरफ लगी रहती हैं। क्या इस बात का इन्हें पता नहीं या जानबूझकर बिल्ली से आंखें मूंद रही हैं?

जहां तक द्विज लेखन की बात है तो इनकी कथा- कहानियां जारकर्म से शुरू होकर जारकर्म पर खत्म होती है। यही इन की साहित्य की रामायण - महाभारत है। वैसे पूछा जाए, इन्होंने शरण कुमार लिंबाले की आत्मकथा 'अक्करमाशी' पढ़ी ही होगी? यह अक्करमाशी कौन है और उस का इन से क्या रिश्ता है? बताया जाए, अक्करमाशी द्विज सामंत की औलाद है जो अपने पिता के नाम के लिए लड़ रहा है। ऐसे ही हर अक्करमाशी का रिश्ता द्विज व्यवस्था से सामंतों से ही जुड़ता है। इसी बात से लेखिका परेशान हो गई लगती हैं, तभी ये दलित आत्मकथाओं से खार खा रही हैं।

यह भी जाना जाए, अगर दलितों की आत्मकथाओं में दोहराव है तो इसमें गलत क्या है? अगर सूरजपाल चौहान जी की मां के साथ गांव के ठाकुर ने जोर जबरदस्ती की है तो यह दर्ज होना ही था। ऐसी ही सच्ची घटनाओं के दर्ज होने से द्विज वर्ण व्यवस्था का कच्चा चिठ्ठा सामने आ रहा है. अब जगदगुरु का दंभ भरने वाले क्या करें, इनसे किसी को मुंह दिखाते नहीं बन रहा। यह भी बताया जाए, अभी तो गिनती की आत्मकथाएं आई हैं, इनकी संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती ही जानी है। फिर अगर भंवरी देवी बलात्कार कांड, फूलन देवी बलात्कार कांड और ऐसे ही दिन प्रतिदिन के बलात्कारों की आत्मकथाएं सामने आ जाएं तब तो मुद्गल जी बलात्कार से ही इंकार कर देंगी। ये तो तब भी कहेंगी कि 'दलितों की जो आत्मकथाएं आईं उनमें उन्होंने अपना ही रोना रोया।' बताइए, बलात्कार की शिकार क्या नाचेगी-गाएगी?

इन्हें इस बात का भी मलाल है कि ‘आजकल लोग विषय विशेषज्ञ बनकर लिखते हैं, कि फलां स्त्री मामलों का विशेषज्ञ तो फलां दलित मामलों का।‘ इनके इस रुदन पर क्या किया जा सकता है? अगर ये आज तक किसी विषय पर टिक नहीं पाई हैं तो कोई क्या कर सकता है? अब ये जिस विषय की विशेषज्ञ होकर सामने आई हैं तो उम्मीद है ये उस पर लगातार काम करेंगी। दरअसल,  साहित्य में इन की आज तक कोई विशेष पहचान नहीं बन पाई, उसी से विचलित हो कर इन्होंने अपने लिए विषय चयन कर लिया है। चलो कहीं तो नाला गिरा।

दरअसल, पिछले दो-तीन दशकों से दलित विमर्श ने जिस तरह द्विज जार साहित्य को नेस्तनाबूद किया है उसमें अच्छे-अच्छे खेत रहे हैं। स्त्री विमर्श भी दलित विमर्श से जुड़कर ही आया है। इन की समस्या यह है कि यह उस में कहीं नहीं हैं। अब ये क्या करें, इतना लिख रही हैं फिर भी कोई पूछ नहीं। दलित विमर्श में तो गैर दलितों का प्रवेश निषेध है, और जहां तक स्त्री स्त्री विमर्श की बात है तो उस पर पहले ही जारकर्म समर्थक स्त्रियों ने कब्जा जमाया हुआ है, जो दलित विमर्श से भागी भागी फिर रही हैं। तब इन्होंने तिकड़म बढ़ाते हुए लिखा, ‘साहित्य में कोई एक ट्रेंड नहीं होता।‘ फिर अरुण होता से लिखवाया ‘नालासोपारा ट्रेड सेटर उपन्यास है।... यह पिछले 20 वर्षों से जो स्त्री विमर्श और दलित विमर्श चल रहा है उसे बदल देगा।‘ फिर ये  खुद लिख रही हैं, “मुझे यह कहने में कोई दिक्कत नहीं है कि ‘नाला सोपारा’ ने इस ट्रेंड को बदला और ‘नाला सोपारा’ कोई आज के ट्रांसजेंडर नहीं, हमारे तमाम मिथकीय चरित्रों पर भी इसमें बात है।“ इनके लिखे शब्द खुद ही इनके अंतर्मन की पीड़ा को बयां कर देते हैं।

इन्होंने एक अच्छी बात लिखी है कि ‘ट्रांसजेंडर बच्चों के लिए मेरा मानना है कि जैसे कन्या भ्रूण हत्या के लिए दंड विधान है वैसा ही दंड विधान ऐसे बच्चों के मां बाप के लिए भी हो यही मांग है।‘ बिलकुल सही मांग है यह, लेकिन क्या ये हमारी इस मांग में मदद करेंगी कि ‘अक्करमाशी’ पैदा करने के लिए हंणमंता लिंबाले को दंडित किया जाए। और, क्या ये उन मां-बाप के लिए भी सजा की मांग नहीं करेंगी जो बच्चे को पैदा होते ही नदी में बहा देते हैं या कूड़े के ढेर पर छोड़ आते हैं? असल में ट्रांसजेंडर के नाम पर असली सवालों से आंखें चुराई जा रही हैं।

बताइए, मुद्गल जी को ट्रांसजेंडर के ‘धड़ के नीचे गड़बड़’ दिखाई दे रही है, लेकिन इन्हें दलित की देह दिखाई नहीं दे रही। ऐसी देह जिसे सदियों से इनके पूर्वजों ने लहूलुहान कर रखा है। सही में, दलित की यह एकरूपता सभी ‘दलित आत्मकथाओं’ में देखी जा सकती है। यह देखकर इन्हें स्त्री और मनुष्य होने के नाते शर्म आनी चाहिए थी, लेकिन ये तो बेशर्म होकर एकरूपता का राग अलाप रही हैं। इसे मानव इतिहास की उस त्रासदी के रूप में देखा जाना चाहिए जो हिटलर के रूप में अवतरित हुई थी। दरअसल, जब तक वर्णवादी मुंह नहीं खोलता तब तक उसका असली चेहरा दिखाई नहीं पड़ता। मुंह खोलते ही उसका दलित विरोधी चेहरा चमकने लगता है।

अपने उपन्यास नाला सोपारा को लेकर एक सवाल के जवाब में चित्रा जी कहती हैं - 'आप इतिहास देखिए महिलाओं, दलितों से भेदभाव किया गया लेकिन कभी घर से नहीं निकाला, लेकिन इन्हें (ट्रांसजेंडर, जिन्हें किन्नर कह रही हैं) मां-बाप ही घर से निकाल देते हैं।‘  (देखें, पोस्ट बॉक्स नंबर- 203 - नाला सोपारा को लेकर लेखिका चित्रा मुद्गल ने खोले अहम राज, संजीव कुमार मिश्र, jagran.com) बताइए, दलितों को जिन्हें इंसान ही नहीं समझा गया और हर तरह के अधिकार से मरहूम रखा गया उन की तुलना ये अपने आंगन में नचाने वाले किन्नरों से कर रही हैं! दलित ना हो गया ताश का जोकर हो गया! इधर, इन्हीं के सानिध्य में अपने कंधों पर दलित साहित्य को लेकर चलने का दावा करने वाले लेखक भी कह बैठे ‘अब थर्ड जेंडर दलित सब को साझा मंच पर लाने की चुनौती’ है। गजब के समीकरण चल रहे हैं।

थोड़ी सी बात उपन्यासकार की भी कर ली जाए, जो इस बात पर इतराते फिरते हैं, प्रखर चिंतक डॉ. धर्मवीर ने इन जैसों के लिए कहा है, 'पहले का पुराणकार आज का उपन्यासकार बन गया है।' (देखें, महान आजीवक : कबीर, रैदास और गोसाल, डॉ. धर्मवीर, वाणी प्रकाशन, 21 -ए, दरियागंज, नई दिल्ली 110 002, प्रथम संस्करण : 2017, पृष्ठ 142) उपन्यासकार क्या करता है, यह सही को गलत और गलत को उलझाने के फेर में पड़ा रहता है। यह बलात्कारी को फांसी नहीं होने देता। देखा जा सकता है, इन्हें दलित के दुख दिखाई नहीं पड़ रहे, दिख रही है तो ट्रांसजेंडर की समस्या। जिस पर इन्होंने पन्ने काले काले किए हैं। हो सकता है ट्रांसजेंडर को ले कर इन का मन द्रवित हो गया हो, लेकिन क्या इस के लिए दलित को कोसना जरूरी था? इसे द्विजों के दोगलेपन के रूप में देखा जाना चाहिए। उपन्यासकार अपनी कथा-कहानी के माध्यम से अपने पात्रों के नाम पर अपने चाल-चरित्र को छुपाए रखते हैं। अब सामंत के मुंशी को ही देख लीजिए जिन्होंने  अपनी कहानियों के माध्यम से अपने जारकर्म को छुपाए रखा, जो अब किसी से छुपा नहीं है।

ऐसा नहीं है कि द्विज उपन्यासकार या साहित्यकार ही ऐसे हैं। इन की संगत का असर दलितों- पिछड़ों पर भी देखा जा सकता है। अब राजेंद्र यादव के संभावनाशील लेखक को ही देख लीजिए, जिन्होंने अपनी फेसबुक वॉल पर लगाई अपनी अप्रकाशित कहानी 'अलौकिक' की एक पात्रा के मुंह से कहलवाया है कि, 'लगभग हर पुरूष में एक बलात्कारी और लगभग हर स्त्री में एक रंडी छिपी रहती है।' कहानी के इस तथाकथित मोनोलाग से कोई भी इन की मानसिक स्थिति का अंदाजा लगा सकता है। दरअसल, यह पात्रा या पात्र नहीं बल्कि लेखक खुद अपने बारे में सूचना दे रहा होता है। उधर इनके गुरु ने बलात्कार को लेकर 'हंस' के जनवरी 2013 के संपादकीय में लिखा है, 'रेप 'स्पर ऑफ दा मोमेंट' में होने वाला एक व्यभिचार है। इसमें कोई सोची-समझी योजना काम नहीं करती।‘ बताया जाए, राजेंद्र यादव जी भी उपन्यासकार ही थे। देखा जा सकता है कि गुरु- चेले में कैसी जुगलबंदी चल रही है।

बताया जा सकता है, दलित विमर्श में उपन्यास- कहानी के साथ-साथ इसके लेखक के दिलो-दिमाग को पहले पढ़ा जा रहा है। इस प्रक्रिया में कोई साबुत नहीं बचा है, फिर चाहें वह द्विज हो या दलित। बताना यही है, जिस तरह आज देश बलात्कारी के खिलाफ आंदोलित है, ऐसे ही आंदोलन दलित आत्मकथा में चिह्नित अपराधियों के खिलाफ होंगे। इसी बात से भयभीत हो कर दलित आत्मकथाओं के खिलाफ रोना रोया जा रहा है।  

कहना यह भी है, चित्रा मुद्गल जी अपनी आत्मकथा ले कर आएं, अन्यथा ‘नाला सोपारा’ को ही आत्मकथा मान कर पढ़े जाने से किसी को एतराज नहीं होना चाहिए। महान आजीवक चिंतक डॉ. धर्मवीर ने कहा है, ‘दलितों को अपनी आत्मकथा में द्विजों-सवर्णों द्वारा किए गए अपराधों पर न्यायालय में जाना चाहिए।’ लेखिका इस बात समझ गई हैं और इन अपराधियों की तरफ से वकील बन कर उपस्थित हो गई हैं।  

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सम्पादक

डॉ. लीना