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____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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सामाजिक न्याय की वकालत करता "हम बहुजन"

पत्रिका "हम बहुजन" का प्रवेशांक सितंबर 2019

डॉ लीना/ सामाजिक , शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक पत्रिका "हम बहुजन" का प्रवेशांक सितंबर 2019, मौजूदा भारत, संवैधानिक अधिकार  (आरक्षण) और बहुजन समाज को लेकर पाठकों के बीच आया है। हम बहुजन के इस अंक में अरुंधती राय, उर्मिलेश, प्रोफेसर एस एन. मालाकार, अली अनवर, अनिल चमडिया, उपेंद्र प्रसाद, डॉ महिपाल, डॉ अनिल जय हिंद, रतनलाल, प्रो यू एल  ठाकुर, डॉ अमिता, संजय कुमार सहित देश के जाने माने लेखकों के  आलेख विमर्श करते मिलते हैं। 

हम बहुजन के संपादक हैं रामखेलावन प्रजापति और इस अंक के अतिथि संपादक हैं वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमडिया। 

संपादकीय में रामखेलावन प्रजापति लिखते हैं आरक्षण और सामाजिक न्याय की पृष्ठभूमि पर हम बहुजन का अवतरण हुआ है। बहुजन एकता की बात करते हैं और लिखते हैं कि ओबीसी को एक मंच पर लाकर उसमें अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति व अल्पसंख्यक समुदाय के और अन्य  जाने-माने विद्वान और विचारकों  तथा समाज सेवियों एवं राजनेताओं के विचारों से लोगों को अनुपेरित कर एकता विकसित करने का प्रयास किया जाता रहा है। धीरे-धीरे इन लोगों के बीच आपसी सहकार की स्थिति उत्पन्न हो चुकी है। आपने अपने आरक्षण और अन्य मानवीय अधिकार तथा सामाजिक न्याय की रक्षा के लिए एक मंच पर आने की सहमति बनती लग रही है या यों कहे कि  बहुजन के नाते हम एक हैं, ऐसा दिखाई पड़ने लगा है। इसी जरूरत को देख पत्रिका की जरूरत भी महशूस की गई।

अतिथि संपादक अनिल चमडिया ने' बहुजन विचारधारा के सदस्य कैसे बने' पर खास संपादकीय लिखा है। वे लिखते हैं हिंदूवादी बन कर सामाजिक न्याय के बारे में नहीं सोचा जा सकता । जब अंग्रेजी सत्ता के विरुध आंदोलन हो रहे थे तो सामाजिक न्याय के लिए भी आंदोलन था । तब मनुवादी सत्ता के पक्षधरों ने यह एक नारा दिया राजनीति का हिंदू करण करना होगा। इसका अर्थ यह हुआ कि स्वतंत्र भारत में सामाजिक न्याय के विचारों के साथ होने वाले तमाम आंदोलनों के प्रभाव को बेअसर करने के लिए देश की बहुसंख्यक आबादी का हिंदुत्वकरण करना होगा।उन्होंने सवाल उठाया है कि गौर करें कि बहु जनों के बीच राजनीतिक हिंदूवादी जातिवाद को क्यों बढ़ावा देते हैं।  इस अंक के बारे में लिखते हैं, इस में ऐसी सामग्री भरी पड़ी है जो हमें खुद की चेतना को जितना संपन्न बनाना चाहते हैं उतना पढ़ना और उसे बहुजन हित के नजरिए से समझना भी जरूरी है।

अंधी गली में फंसे सामाजिक न्याय आंदोलन को कैसे बाहर करें? इस पर कलम चलाई है पूर्व राज्यसभा सदस्य अली अनवर ने, लिखते हैं हमारा मानना है कि हम लोगों को नए सिरे से शुरुआत करनी होगी। यूं तो 2014 के पहले ही हमारे नेताओं की अदूरदर्शिता के चलते सामाजिक न्याय के रास्ते में बिखराव आना शुरू हो गया था । लेकिन 2014 से अभी तक जितने भी लोकसभा और विधानसभा के चुनाव हुए हैं एकआध अपवा दों को छोड़ उसमें या बिखराव खुलकर सतह पर आ गया है। इसका भरपूर फायदा सामाजिक न्याय के विरोधी ताकतों ने उठाया।

वरिष्ठ पत्रकार और राज्यसभा चैनल के पूर्व कार्यकारी संपादक उर्मिलेश ने 'हिंदुत्व राजनीति के उत्थान और सामाजिक न्याय समर्थक धारा के पतन का राजनीतिक समाजशास्त्र' को विषय बनाया है।वे लिखते हैं दलित आंदोलन या उससे और व्यापक बनाते हुए कहे तो बहुजन आंदोलन आज लगभग नेतृत्व विहीन होकर पस्त पड़ा हुआ है। लंबे विमर्श में लेखक ने बहुजन आंदोलन के हिंदुत्वा राजनीति के आगे कमजोर होने की विस्तार से  चर्चा की है।वे लिखते हैं अगर हम बीते तीन दशकों के सामाजिक, राजनीतिक, इतिहास, खासतौर पर हिंदी पट्टी के राज्यों पर नजर डालें तो एक बात आईने की तरह साफ है कि इस दौर के ज्यादातर नेताओं के पास ब्राह्मणवादी मूल्यों और हिंदुत्व से निपटने की वह बौद्धिक राजनीतिक चेतना नहीं थी, जिसका विस्तार बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की वैचारिकी  की रोशनी में ही संभव हो सकता था । वे लिखते हैं, उसी वैचारिक विरासत को आगे बढ़ाते हुए आज की हिंदुत्व की भीषण चुनौतियों से निपटना जा सकता था। सिर्फ कांशी राम ने शुरू में कोशिश की महज संयोग नहीं उन्होंने अपनी पार्टी का नाम दलित समाज पार्टी की जगह बहुजन समाज पार्टी रखा। पर बात के दिनों में आंदोलन और नवजागरण पर बसपा का जोर कम होने लगा और सत्ता के समीकरणों का दबाव बढ़ने लगा ।

सहायक अध्यापक हिंदी विभाग, विनयन, उत्तर गुजरात के डॉक्टर समीर प्रजापति ने 'पेरियार:सामाजिक समरसता का पक्षधर मसीहा' आलेख में पेरियार के महान सामाजिक कार्यों को रेखांकित किया है। वे लिखते हैं कि राजनीति से दूरी बनाकर पेरियार  का सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई में स्वतंत्र रूप से सक्रिय होना, ना केवल उनके, अपितु पूरे तमिलनाडु के लिए क्रांतिकारी घटना थी, उनके नेतृत्व में चले आंदोलनों का लाभ तमिलनाडु में  ही नहीं, देश के दक्षिणी प्रांतों के साथ-साथ बाकी हिस्सों में भी सामाजिक जागृति का संचार हुआ। उत्पीड़न एवं वंचना के शिकार लोग अपने अधिकारों तथा मान सम्मान की सुरक्षा एवं संरक्षा हेतु गोलबंद हुए। पेरियार ने हजारों  वर्षों से रूठी पड़ी परंपराओं, आडंबरों और बौद्धिक पाखंडों पर प्रहार किया, ब्राह्मणवाद की जड़ों को हिला दी।

'जाति और सामाजिक पूंजी' आलेख को लिखा है डॉक्टर अनिल यादव जय हिंद। इसमें लिखा जाति और सामाजिक पूंजी की व्याख्या करते हुए उसका चित्रण करते हैं और कार्ल मार्क्स का हवाला देते हुए कि लिखते हैं उत्पादन के लिए पूंजी, श्रम, और जमीन की आवश्यकता होती है। बाद में इसमें तकनीक को भी जोड़ दिया गया और हाल ही में इसमें सामाजिक पूंजी को भी  जोड़ा गया है। आजकल यह मान्यता है कि उत्पादन के लिए पूंजी, श्रम, जमीन, तकनीक और सामाजिक पूंजी आवश्यक है। आलेख में सामाजिक पूंजी के तंत्र क्या है उसकी भी चर्चा लेखक ने की है। वहीं, डॉ विजय कुमार त्रिशरण ने 'सामाजिक न्याय अतीत, वर्तमान और भविष्य' आलेख में लिखते हैं कि सामाजिक न्याय के लिए हमें सामाजिक अन्याय के बोलबाला को खत्म करना होगा। सामाजिक अन्याय खत्म करने का अर्थ है सामाजिक अन्यायमुक्त भारत का निर्माण हो। सामाजिक अन्यायमुक्त भारत निर्माण के लिए आरक्षण बचाओ नहीं, आरक्षण बढ़ाओ का नारा देना होगा। लेखक लिखते हैं कि दूसरे शब्दों में हम कहे कि वर्तमान आरक्षण नीति से दो कदम आगे बढ़कर सर्वव्यापी आरक्षण यानी यूनिवर्सल रिजर्वेशन का नारा  देना होगा ताकि हम समता भारत, प्रबुद्ध भारत और सक्षम भारत के बना सकें। सामाजिक न्याय के लिए इससे बड़ा एजेंडा और कोई नहीं हो सकता है। पूरा आलेख सामाजिक न्याय की वकालत एवं अवधारणा पर फोकस से है।

डॉक्टर भीमराव अंबेडकर दलितों के साथ-साथ पिछड़ा वर्ग के मसीहा आलेख संजय कुमार ने लिखा है इसमें लेखक ने बताने की कोशिश की है कि जितनी चिंता बाबा साहब को  दलितों के प्रति थी उतनी ही पिछड़ों की। लेखक लिखते हैं कि बाबा साहब के प्रयास से ही संविधान में पिछड़े वर्गों के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण का प्रावधान हो सका और दबाव के कारण ही प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग गठित हुआ । बाद में मंडल आयोग गठित हुआ । सरकारी नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण के अधिकार के साथ मुख्यधारा में आने के लिए पिछड़ा वर्ग बाबा साहब के योगदान को कभी भुला नहीं सकता है।

अरुंधति रॉय का आलेख 'डॉ अंबेडकर का इंकलाबी कदम' को उन्हीं की पुस्तक 'एक था डॉक्टर एक था संत' से साभार लिया गया है. अरुंधति राय की पुस्तक का अनुवाद अनिल यादव जय हिंद और रतनलाल ने किया है।इस आलेख में पुस्तक के कुछ अंश को रखा गया है। जो अंबेडकर के इंकलाबी-क्रांतिकारी धर्म- जाति  के खिलाफ उठाए गए कदम थे। 

उपेंद्र प्रसाद ने 'जाति जनगणना क्यों जरूरी? आलेख में जाति जनगणना को लेकर सवाल उठाए हैं। खासकर ओबीसी की गणना को लेकर।लिखते की अगली 10 वर्षीय जनगणना का समय जैसे-जैसे नजदीक आ रहा है इसको लेकर भ्रम बढ़ता ही जा रहा है सबसे ज्यादा भ्रम जाति जनगणना को लेकर है सवाल उठाते हैं क्या अगली जनगणना में जाति जनगणना होगी और अगर वह होगी तो किस तरह की जनगणना होगी। इसकी जानकारी लेकर जनगणना आयुक्त का कार्यालय सामने नहीं आ रहा है ।लोकसभा चुनाव के पहले सरकार ने यह घोषणा की थी कि इस बार ओबीसी की गणना होगी लेकिन वह घोषणा भी अस्पष्ट थी ओबीसी कहने से बात स्पष्ट नहीं होती क्योंकि प्रत्येक राज्य में ओबीसी की दो तरह की सूची होती है एक सूची केंद्र की दूसरी राज्य सरकार की।

डॉ रतन लाल ने 'पिछड़ा वर्ग और उनके राजनीतिक प्रतिनिधित्व का प्रश्न' को डॉक्टर अंबेडकर की नजरों से देखा और प्रस्तुत किया है। तो वहीं कई वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमडिया ने 'शब्दों के अर्थ और उनके राजनीतिक संबंध बहुजन बनाम बहुसंख्यक' आलेख में राजनीतिक नजरिए से वस्तुस्थिति को परखा  है। राजनीति का बहुजनकरण, सामाजिक न्याय बनाम सोशल इंजीनियरिंग, शिक्षित होने का अर्थ और अंबेडकर, शिक्षा का अर्थ और निजीकारण बनाम सामाजिक न्याय खंड में आलेख को बांट कर विस्तार से चर्चा की है।

डॉ उत्तम लाल ठाकुर ने आलेख 'बिहार के परिपेक्ष में जननायक कर्पूरी ठाकुर का सामाजिक और राजनीतिक और अवदान ' जननायक की राजनीतिक और सामाजिक योगदान की चर्चा की है उनके चिंतन को विस्तार से लिखा है। सगीर अहमद ने 'अब्दुल कयूम अंसारी' आलेख में उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर  विस्तार से चर्चा की है। जबकि डॉक्टर महिपाल ने 'समाज व्यवस्था से ही शासन व्यवस्था में परिवर्तन संभव' पर कलम चलाई है।वे लिखते हैं वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत जो सामाजिक ढांचा है उस गांव में मटको की जेठ से समझा जा सकता है इस जेठ में सबसे नीचे बड़ा मटका होता है उसके ऊपर उसे छोटा मटका रखा जाता है उसके ऊपर उससे भी छोटा मटका रखा जाता है और उसके ऊपर उससे भी छोटा मटका रखा जाता है इस प्रकार चार मटके हैं जो चारों वर्णों की स्थिति को बताते हैं। अन्ना लेखों में एस एन मालाकार ने 2021 में जाति जनगणना और ओबीसी के साथ धोखाघड़ी की योजना, अशोक यादव का संघर्ष जारी है, डॉक्टर जवाहर पासवान का बाबा साहब की सामाजिक दृष्टि, डॉ अमिता की इतिहास के पन्नों में फातिमा शेख, आकांक्षा यादव की राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने की जरूरत, अंजलि पासवान की ज्योति राव फूले, पेरियार एवं डॉ अंबेडकर के सपनों को साकार किया बीपी मंडल, डॉ सुनीता यादव का यूनिवर्सिटी में आरक्षण पर सरकार ने संसद में झूठ बोला, सुबह जसवाल भारती का आरक्षण और सामाजिक समरसता, टॉप विश्वनाथ राम कुशवाहा का एससी एसटी और ओबीसी के अधिकारों का हनन, रघुनीराम शास्त्री का दलित शोषित समाज के महापुरुषों की प्रासंगिकता, राम अयोध्या सिंह विद्यार्थी का लेख मिशन पर नहीं चलने का प्रतिफल है मंडल कमीशन की विफलता, नवगीत का आलेख मंडल आयोग के बढ़ते प्रभाव पर खतरा, इं गिरिजा सिंह कुशवाहा का आलेख भारत में मूल निवासियों की सामाजिक एवं राजनीतिक स्थिति आलेख मजबूती से बहुजन  विमर्श करते जहां दिखते हैं वहीं वहीं हम बहुजन के इस अंक  में द्वितीय पिछड़ा वर्ग आयोग (मंडल आयोग) की सिफारिशें को विस्तार से जगह दी गई है। वहीं,  मुरहो में आयोजित बीपी मंडल जयंती समारोह 2019 की रिपोर्ट को प्रस्तुत किया है डॉ नारायण कुमार ने। जबकि इस अंक में  बालेश्वर यादव की लंबी कविता 'जय भीम जय मूलनिवासी' हम बहुजन गूगल बंद करते हुए दिखता है।

पत्रिका- हम बहुजन 

प्रवेशांक -सितंबर 2019

सहयोग राशि- ₹100 

संपादक -रामखेलावन प्रजापति

अतिथि संपादक- अनिल चमडिया

संपर्क- श्रीकृष्ण आस्था मंच, जगन्नाथ पुरी, बरमसिया, कटिहार 854105, बिहार

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डॉ. लीना