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 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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देख तेरे टीवी की हालत क्या हो गई इंसान.....

प्रवीण श्रीराम / टीवी के अंदर बैठने वालों को टीवी के सामने बैठने का मौका कम ही मिल पाता है। खबरों में रहने की वजह से न्यूज चैनल कभी-कभी बोर करने लगते हैं। फिर नवांगतुक या अंडर ट्रैनिंग एंकर्स की अलोचना करते रहने से भी मन ऊब गया है। सच पूछिए तो खुद को भी कोई बहुत अच्छे एंकरों में नहीं गिनता और अपनी एंकरिंग से ही बोर हो गया हूं तो कहीं और क्या पत्थर उछालूं। हां अब जब बड़े-बड़े संपादकों को एंकर बनने की चेष्टा करते देखता हूं तो इन बच्चों की एंकरिंग से भी प्यार होने लगता है।

दरअसल असरदार संपादकों को एंकर बनने का कीड़ा काट गया है इनमें से ज्यादातर तो वे हैं जो एंकरिंग के काम को ही हेय दृष्टि से देखा करते थे। एंकरों को जमकर गालियां निकालने वाल ऐसे कई मूर्धन्य बड़े-बड़े पत्रकार अब अपनी उम्दा एंकरिंग के लिए दर्शकों और अपने से बहुत छोटे एंकरों की आलोचनाओं का शिकार हो रहे हैं। जीवन में अनुभव का ही महत्व है, कैमरे के सामने कांपते, भूलते और बहुत लंबे-लंबे सवाल पूछते इन प्रभावशाली पत्रकारों को अब शायद अच्छे एंकरों के प्रति सम्मान की सहज प्राप्ति हो गई होगी। पिछले दो सालों में एक और जमात पैदा हो गई है और ये है बहुत समय से खाली बैठे पत्रकारों के विशेषज्ञ बनने की। आजकल ये विशेषज्ञ इतनी डिमांड पर हैं कि इनकी कई-कई दिनों पहले से बुकिंग हो रही है और चैनल भी इन्हें अच्छे-तगड़े दाम देकर साल-छह महीने के लिए अपने साथ जोड़ रहे हैं। सुबह से शाम तक ये विशेषज्ञ अपने घर बैठे-बैठे ही विभिन्न चैनलों के माध्यम से घर-घर टप्पे खा लेते हैं और शाम तक ठीक-ठाक कमाई भी हो जाती है। अब तो बड़ी मनुहार के बाद भी वो पकड़ में नहीं आते जो कभी फोन करके कहा करते थे कि कोई पैनल डिस्कशन वगैरह हो तो बताना, अपना भी चेहरा चमक जाएगा। किसी को ओबी चाहिए तो किसी को बेहतर चैक मिल रहा है, तो भई बैनर और चैनल की टीआरपी तो अहम है ही ना? इससे पहले शायद पत्रकारों का इससे अच्छा दौर नहीं रहा होगा और मेरा तो कार्यक्षेत्र यही है जाहिर तौर पर मेरा खुश होना तो बनता है। अरे हम भी तो कभी इस लायक होंगे.. हैं.. नहीं क्या?

खैर मुद्दा ये है कि इनमें से ज्यादातर के साथ स्क्रीन शेयर कर लेने के बाद इन्हें किसी और स्क्रीन पर देखने की बहुत ज्यादा दिलचस्पी हममें तो नहीं रहती हैं।

अब धंधे की मजबूरी कहिए या न्यूज चैनलों को मेरे नहीं देख पाने की पर्याप्त वजह कहिए इनकी स्थिति को देखते समझते हमने रुख किया फिल्मी चैनलों का। बड़ी मजेदार साउथ की हिंदी में डब्ड फिल्मों का जमाना चल रहा हैं, अपने को पसंद भी है... पर जनाब इतना समय कहां कि 3 घंटें बैठ जाएं। सिनेमा घर का मुंह देखे जमाना बीत गया है, सुना है सिनेमा देखने का तौर तरीका बहुत बदल गया है। समयाभाव के चलते आजकल की फिल्मों और संगीत का हालचाल जानने के लिए हमने म्यूजिक चैनलों का रुख कर लिया। पर कुछ पर तो म्यूजिक नहीं कुछ और ही था। कॉलेज के (वैसे हरकतों से पढ़ने-लिखने वाले नहीं लग रहे थे)छात्रों के कुछ अनाप-शनाप एडवेंचर, खतरनाक प्यार मुहब्बत और मैं तुझसे ज्याद अभद्र और अश्लील की प्रतियोगिता के बीज कुछ म्यूजिक चैनल सचमुच फिल्मी गाने और प्रोमो दिखा रहे थे। किसी भी चैनल को देखिए ऐसा लगता है लूप बनाकर डाल दिया है और थोड़ी-थोड़ी देर में हर चैनल पर एक जैसी चीजें सामने होती हैं। इनसे आगे बढ़े तो आध्यात्मिक चर्चाओं और प्रवचनों को सुनने की पुरानी खुजली ने डिवोशनल चैनल्स की तरफ आकर्षित किया। पहले बाबा से कुछ हैल्थ टिप्स मिल जाते थे लेकिन उन्होंने जबसे लाइन चैंज की डिवोशनल चैनल्स की भी लाइन चैंज हो गई है। शायद आप जानते हो की 50 से ज्याद डिवोशनल चैनल्स चल रहे हैं और धड़ल्ले से कई और आ रहे हैं। भाग्य बताने वालों की बड़ी जमात अब इन चैनलों का सदुपयोग करने में जुटी हुई है। चैनल वाले भी इनसे पैसा लेते हैं और इसके बाद वो तेल चढ़वाकर जनता का कैसे तेल निकालते हैं इससे उनका कोई लेना देना नहीं होता। इनमें से कितनों की ट्रैनिंग अपने अंडर ही हुई है। गंदा है पर धंधा है ये। टीआरपी के लालची हम जैसे लोगों ने ही तो इन नौनिहालों को सेलीब्रिटी एस्ट्रौलॉजर, वास्तुशास्त्री और जाने क्या क्या बनाया है। बिना लैपटॉप ऑन किए, उसमें झांक-झांककर या बस सवाल सुनकर किसी के जीवन की गंभीर समस्याओं का समाधान खट से बता देने की इनकी कला से मैं बखूबी वाकिफ हूं सो इन्हें बर्दाश्त करना असंभव था। भविष्य संवारने वालों के साथ-साथ केश संवारने और बॉडी बिल्डर बनाने वाले, या खाते-खाते टीवी के सामने बैठे रहने वाली महिलाओं को दुबला-पतला बना देने की तकनीक और दवाइयां भी धड़ल्ले से इन चैनलों पर बिक रही हैं। फिर अपनी-अपनी दुकानों (संस्थाओं) का प्रचार करने वाले कथित ज्ञानियों के ज्ञान भी अब अपच्य से लगने लगे हैं। इन सबसे बचकर कुछ आगे बढ़ा तो ठहर गया।

आपको ऐसा लगता है कि किसी अंग्रेजी फिल्म का कोई 'धांसू' सीन सामने आ गया या फैशन टीवी का नंबर दब गया तो माफ कीजिएगा आप गलत हैं। दरअसल बचपन की यादें ताजा हो आई जब कार्टून नेटवर्क पर टॉम एंड जैरी देखा। यादों के साथ-साथ हंसी भी ताजा हो आई। कार्टून तो हर चैनल पर आ रहे हैं लेकिन हंसी नहीं है और वो खुद को कार्टून मानने को भी तैयार नहीं हैं क्योंकि इंसान की शक्ल में जो हैं। ये इंसान होना हमेशा गलत-फहमी पैदा कर देता है। हमें ही लो जैसे टीवी को सर्टिफिकेट देना का ठेका जाती हुई सरकार ने हमें ही दे दिया हो। कुछ देर कार्टून चैनल के विशेषज्ञों टॉम एंड जैरी को देखा फिर घड़ी पर नजर दौड़ाई तो दफ्तर जाने की याद आई। मैं उठा, सजा-धजा, बैग और गाड़ी की चाबी ली और निकल पड़ा कार्टून बनने के लिए। लेकिन कुछ बदलाव के साथ, अब जब टीवी के अंदर से बाहर झांकूंगा तो इस अहसास के साथ की बाहर से अंदर झांकने वाले के साथ नाइंसाफी न करूं और मैं टॉम एंड जैरी का काम उन्हीं को करने दूंगा।

आपका, डॉ. प्रवीण श्रीराम

(प्रवीण जी के ब्लॉग से साभार)

 

 

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पुरालेख--

सम्पादक

डॉ. लीना