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____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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पंतजी हिंदी के अप्रतिम योद्धाः राजेंद्र शर्मा

पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति अखिल भारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान से अलंकृत हुए ‘अक्षरा’ के प्रधान संपादक कैलाश चंद्र पंत 

लोकेंद्र सिंह/ भोपाल। हिंदी और साहित्य के क्षेत्र में ‘अक्षरा’ के प्रधान संपादक कैलाश चंद्र पंत का अवदान महत्वपूर्ण है। सभी विचारधाराओं के लोगों के बीच उनकी प्रतिष्ठा है। साहित्यिक पत्रकारिता में वे उन मूल्यों को लेकर चले हैं, जो आजादी के पूर्व की पत्रकारिता में थे। पंत जी  ‘अक्षरा’ के माध्यम से सिर्फ साहित्य की साधना ही नहीं कर रहे, बल्कि हिंदी के सम्मान की लड़ाई लड़ रहे हैं। यह विचार हिंदी दैनिक ‘स्वदेश’ के प्रधान संपादक राजेंद्र शर्मा ने व्यक्त किए। मीडिया विमर्श पत्रिका की ओर से गांधी भवन, भोपाल में आयोजित पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति अखिल भारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान समारोह में श्री शर्मा बतौर मुख्य अतिथि उपस्थित थे। 

श्री शर्मा ने कहा कि सफल व्यक्ति वही होते हैं, जो समाज को दिशा देते हैं। पंतजी यही कर रहे हैं। हिंदी की प्रतिष्ठा का विषय जहाँ भी आया, पंत जी ने वहां अपनी भूमिका का निर्वहन किया है। अभी अपनी स्वर्ण जयंती वर्ष के अवसर पर‘स्वदेश’ समाचार पत्र ने संकल्प लिया है कि हिंदी समाचार पत्रों में अंग्रेजी भाषा के गैर जरूरी शब्दों के उपयोग को ख़त्म करने के लिए एक वातावरण बनाया जाये। जब हमने इसकी योजना के लिए बैठक बुलाई तो पंतजी का मार्गदर्शन हमें प्राप्त हुआ। उन्होंने कहा कि आज का मीडिया हिंदी को हिंग्लिश बनाकर उसकी आत्मा को ही खंड-खंड कर रहा है। हिंदी की दुर्दशा के पीछे एक प्रमुख कारण हमारे प्रारंभिक नेतृत्व की कमजोरी भी है। यदि मजबूती के साथ शुरुआत में ही संविधान में हिंदी को राष्ट्रभाषा तय कर दिया होता, तब आज यह स्थिति नहीं होती। उस समय अंग्रेजी को हम पर थोप दिया गया, जो अब तक हमारे दिमाग पर सवार है। उन्होंने कहा कि नेतृत्व की कमजोरी 1947 में भी दिखी थी। हमारा नेतृत्व 1947 में थोड़ी दृढ़ता दिखा देता तो देश बंटता नहीं। जैसी स्थिति हमारे देश में बनी थी, वैसी गृहयुद्ध की स्थिति अमेरिका में भी बनी थी। लेकिन, अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहिम लिंकन ने कह दिया था कि गृहयुद्ध मंजूर है, लेकिन देश नहीं बंटने दूंगा। 

श्री शर्मा ने कहा कि आज समाज में राष्ट्रवादी सोच की कमी दिखाई देती है, इसकी बड़ी वजह अंग्रेजी और अंग्रेजियत है। हमने अंग्रेजी के प्रभाव को समाप्त करने के लिए मिल-जुल कर प्रयास करना होगा। उन्होंने बताया कि हिंदी की प्रतिष्ठा के लिए पंतजी का योगदान बहुत महत्वपूर्ण है। पंतजी ने साहित्य और हिंदी पर सरकारी आधिपत्य के खिलाफ लड़ाई लड़ी और उसमें सफलता प्राप्त की। उन्होंने अनेक प्रमुख साहित्यकारों को जोड़कर हिंदी के लिए आवाज उठाई है। 

हिंदी के प्रचार-प्रसार का दायित्व हम सबका : सम्मान समारोह की अध्यक्षता कर रहे ‘हरिभूमि’ के समूह संपादक डॉ. हिमांशु द्विवेदी ने कहा कि साहित्यिक पत्रकारिता को सम्मानित करके मीडिया विमर्श अनुकरणीय कार्य कर रही है। यह 9वां सम्मान समारोह है। उन्होंने अपनी बात प्रसिद्ध शायर वसीम बरेलवी की शायरी –“वसूलों पर जहां आंच आए तो टकराना जरूरी है, जो जिंदा तो फिर जिंदा नजर आना जरूरी है ” से शुरू करते हुए पत्रकारिता की चुनौतियों पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि पत्रकारिता में कल भी चुनौतियां थीं, आज भी हैं और आगे भी रहेगीं। ऐसे में इस क्षेत्र में दो तरह के लोग शुरू से रहे हैं। एक वो जो किस्मत के भरोसे बैठकर इंतजार करते हैं कि किस्मत की लहरें जहां ले जाएंगी, वहां चले जाएंगें। दूसरे वे होते हैं जो लहरों के विरूद्ध दरिया को पार करते हैं, ऐसे ही दरिया पार करने वाले लोगों को दुनिया याद करती है। हिंदी को बचाने के संबंध में उन्होंने कहा कि हिंदी के प्रचार-प्रसार का दायित्व सिर्फ सरकार का नहीं है, बल्कि देश के सभी लोगों का कर्तव्य है। इस संबंध में उन्होंने कहा कि इस समय स्वदेश ने हिंदी से अंग्रेजी के शब्दों को बाहर करने के लिए जो आग्रह किया है, मेरा संस्थान उस आग्रह के साथ है। 

अंग्रेजियत से मुक्ति था उद्देश्य था : अक्षरा के प्रधान संपादक कैलाश चंद्र पंत ने अपने संबोधन में कहा कि अंग्रेजों से देश को आज़ाद कराना मात्र स्वतंत्रता आंदोलन का उद्देश्य नहीं था बल्कि, सम्पूर्ण अंग्रेजियत से मुक्ति स्वतंत्रता आंदोलन का उद्देश्य था। महात्मा गांधी ने यह समझ लिया था कि आज़ादी के बाद देश को एक सूत्र में जोड़कर रखने के लिए हिंदी भाषा के संस्थानों को मजबूत करना जरूरी है। इसीलिये महात्मा गांधी ने देश के अहिन्दी प्रान्तों में जाकर हिंदी का प्रचार-प्रसार किया। वे हिंदी को भारत की एकता का सबसे बड़ा माध्यम मानते थे। श्री पंत ने कहा कि हिंदी के प्रति अपना जीवन समर्पित करने वाले लोग उनकी प्रेरणा हैं। उन्होंने कहा कि मानसिक गुलामी के कारण हम स्वतंत्रता के 70 साल बाद भी अपनी भाषा के प्रति जागरूक नहीं हैं। साहित्यिक पत्रकारिता की भूमिका के सम्बंध में उन्होंने कहा कि जिस प्रकार मुख्यधारा की पत्रकारिता का दायित्व है कि जो भी घटित हुआ, उसे उसी प्रकार निष्पक्षता और निर्भीकता के साथ समाज के सामने प्रस्तुत करें। उसी प्रकार साहित्यिक पत्रकारिता का दायित्व है कि साहित्य में जो भी धाराएं चल रही हैं, वे राष्ट्र और समाज के लिए कितनी लाभदायक और हानिकारक हैं, इस पर नज़र रखना। 

उन्होंने कहा कि आज जो जन बोलता है, वो तंत्र नहीं समझ पाता है और जो तंत्र बोलता है, वह जन की भाषा नहीं है। इस कारण जन और तंत्र के बीच एक खाई बनती है। इस खाई को भरने के जरूरत है। उन्होंने कहा कि अंग्रेजी में बनने वाले कानूनों को गांव का आदमी कैसे समझ सकेगा। अंग्रेजी के कारण बड़ी गड़बड़ हुयी है। अंग्रेजी ने ही भारत में राष्ट्रवाद को विवादित बनाया है। राष्ट्रवाद के लिए अंग्रेजी का नेशन शब्द का उपयोग किया जाता है। नेशन एक प्रकार से राजनीतिक शब्द है, जबकि भारत में राष्ट्रवाद साहित्य, संस्कृति और सभ्यता से जुड़ा हुआ है। नेशन की उत्पत्ति नाज़ीवाद से हुयी है, जिसका भारत के राष्ट्रवाद से कोई लेना-देना नहीं है। 

चरैवेति-चरैवेति मंत्र है पंतजी का : समारोह के विशिष्ट अतिथि एवं मध्यप्रदेश सरकार के पूर्व मुख्य सचिव कृपाशंकर शर्मा ने कहा कि वे पहली ही मुलाकात में मूल्यों के प्रति पंतजी की प्रतिबद्धता से बहुत प्रभावित हो गए थे। उन्होंने कहा कि ऋग्वेद के त्रेत्रेय ब्राह्मण के एक मंत्र ‘चरैवेति-चरैवेति’ को अपना कर पंतजी अपने ध्येय पथ पर निरंतर चले जा रहे हैं। जिस समय हिंदी में प्रदूषण बढ़ता जा रहा है, उस समय में हिंदी के लिए पंतजी खड़े दिखाई देते हैं। हिंदी में अनावश्यक अंग्रेजी शब्दों के उपयोग से हिंदी की समृद्धि रुक गयी है। उन्होंने कहा कि पंतजी ने जितनी सेवा हिंदी की है, उतना ही महत्वपूर्ण योगदान राष्ट्रवाद को पुष्ट करने में है। आज भारतीय संस्कृति के सामने अनेक चुनौतियाँ हैं। अंग्रेजी मीडिया में जिस प्रकार की भावनाएं व्यक्त की जा रही हैं, वे किसी भी प्रकार राष्ट्रहित में नहीं है। भारतीय राष्ट्रवाद के संबंध में भ्रम और मिथ्या धारणा हमारी शिक्षा पद्धति की खामी के कारण है। शिक्षा में सुधार आवश्यक है। 

मीडिया विमर्श के 'राष्ट्रवाद और मीडिया' विशेषांक का जिक्र करते हुए श्री शर्मा ने कहा कि राष्ट्रवाद पर मीडिया विमर्श के दो अंक देखकर अच्छा लगा कि मीडिया का एक वर्ग राष्ट्रवाद पर विचार कर रहा है। आज जरूरत है कि राष्ट्रवाद की भावना और मूल्यों को समझा और समझाया जाये। आज बहुत से प्रायोजित तत्व भारतीयता को चोट पहुँचाने की कोशिश में लगे हुए हैं। ऐसे राष्ट्र विरोधी तत्वों को असफल करने के लिए राष्ट्रहित में लिखना जरूरी है। 

हिंदी के योद्धा हैं दादा : पद्मश्री से अंलकृत विजयदत्त श्रीधर ने कैलाश चंद्र पंत की जीवनयात्रा और पत्रकारीय सफर का विवरण देते हुए बताया कि दादा केवल अक्षरा के संपादक नहीं हैं, बल्कि उन्होंने हिंदी के समाचार पत्रों में अंग्रेजी के शब्दों का जिस प्रकार घटिया प्रयोग बढ़ रहा है, वे उसके विरुद्ध अलख जगाने वाले योद्धा हैं। मऊ में जन्मे दादा ने अपनी पत्रकारिता का शुभारंभ 1972 में इंदौर समाचार से किया। दादा नवभारत, नवप्रभात और शिक्षा प्रदीप जैसे अन्य प्रतिष्ठित समाचार पत्रों में उन्होंने काम किया। पंतजी की लेखनी और संपादकीय कौशल के कारण भवानी प्रसाद के साप्ताहिक समाचार पत्र का जनधर्म का पाठक इंतजार किया करते थे। इस समाचार पत्र का प्रत्येक अंक एक विशेषांक होता था। वर्ष 2003 से साहित्यिक पत्रिका 'अक्षरा' की संपादकीय व्यवस्था पंतजी को सौंपी गई। पंतजी अक्षरा को साहित्य से थोड़ा-सा बाहर ले गए। उन्होंने अक्षरा में वैचारिक आलेखों की श्रृंखला की शुरुआत की, जिससे यह पत्रिका लोगों के बीच लोकप्रिय हो गई। पंतजी के लोकसंपर्क और लोगों को अपना बनाने के आत्मीय व्यवहार के संबंध में श्री श्रीधर ने बताया कि देश का ऐसा कोई कोना नहीं होगा, जहाँ पंतजी के अपने लोग नहीं होंगे। वे लोगों को अपने परिवार का हिस्सा बना लेते हैं। पंतजी ने हिंदी भवन को भी ऐसा सक्रिय मंच बना दिया, जहाँ निरंतर कुछ न कुछ होता रहता है। हिंदी भवन पंतजी की योजना से प्रत्येक आयु वर्ग के बौद्धिक संवर्धन के लिए गतिविधियों का संचालन करता है। उन्होंने कहा कि हर शहर में ऐसी विभूतियां होती हैं, जो शहर की पहचान बन जाती हैं। ऐसी ही विभूति कैलाश चंद्र पंत हैं। 81 साल के होने के बाद भी वे इतना गतिशील हैं कि सामाजिक,साहित्यिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में उनकी सक्रियता सबको प्रेरित करती है।

साहित्य का सरलीकरण अक्षरा की विशेषता : वरिष्ठ अभिनेता एवं रंगकर्मी राजीव वर्मा ने बताया कि उनके पिता को दहेज में किताबों से भरा हुआ एक बक्सा, हारमोनियम और कुछ बर्तन मिले थे। किताबें साहित्य और इतिहास की थीं। कुछ उपन्यास भी थे। उन्होंने कहा कि वह साहित्य के विद्यार्थी हैं। उपन्यास को कहानी की तरह पढ़ता था। लेकिन, जब अक्षरा की संपादक सुनीता खत्री से परिचय हुआ और उन्होंने अक्षरा मुझे भेजना शुरू किया। इसके बाद अक्षरा में प्रकाशित नाटक और कहानियों पढऩा शुरू किया, तब पहली बार लगा कि साहित्य समाज के आम लोगों के लिए भी होता है। इससे पहले मैं सोचता था कि साहित्य सिर्फ विद्वानों के लिए नहीं लिखा जाता है, लेकिन अक्षरा ने मेरा यह भ्रम तोड़ा। प्रतिष्ठित पत्रिका साहित्य को सरल ढंग से लोगों के बीच लेकर जाती है, यह उसकी विशेषता है। श्री वर्मा ने बताया कि अक्षरा में प्रकाशित कई कहानियों पर मैंने छोटे-छोटे नाटक भी लिखवाए।

वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. परमात्मानाथ द्विवेदी ने सम्मान समारोह के प्रस्तावित भाषण में कहा कि मीडिया विमर्श की ओर से नौ वर्षों से प्रतिवर्ष पंडित बृजलाल द्विवेदी की स्मृति में हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता के लिए समर्पित संपादक का सम्मान किया जाता है। इस वर्ष 'पं. बृजलाल द्विवेदी अखिल भारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान-2017'साहित्य क्षेत्र की महत्त्वपूर्ण पत्रिका 'अक्षरा' के संपादक कैलाश चंद्र पंत को दिया गया। श्री पंत  साहित्यिक पत्रकारिता के एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर होने के साथ-साथ देश के जाने-माने संस्कृतिकर्मी एवं लेखक हैं। पिछले तीन दशक से वे साहित्य पर केंद्रित महत्वपूर्ण पत्रिका'अक्षरा' का संपादन कर रहे हैं।

इस अवसर पर सर्वश्री रामेश्वर मिश्र, प्रो. कुसुमलता केडिया, कवि शिवकुमार अर्चन, सुबोध श्रीवास्तव, महेंद्र गगन, रमाकांत श्रीवास्तव, उपन्यासकार इंदिरा दांगी, लाजपत आहूजा, पूर्व विधायक पीसी शर्मा, डा. श्रीकांत सिंह, डा. पवित्र श्रीवास्तव, डा. पी.शशिकला, डा. अविनाश वाजपेयी, पत्रकार प्रिंस गाबा, प्रकाश साकल्ले, दिनकर सबनीस, महेश सक्सेना, शिवशंकर पटेरिया. अनुराधा आर्य, डा. रामदीन त्यागी सहित अनेक पत्रकार, साहित्यकार एवं रचनाकार उपस्थित रहे। कार्यक्रम का संचालन संस्कृतिकर्मी विनय उपाध्याय ने किया।

इसके पूर्व के सत्र में विचारक एवं राजनेता हरेंद्र प्रताप(पटना) ने पंडित दीनदयाल उपाध्याय की पुण्यतिथि प्रसंग पर एकात्म मानवदर्शन की प्रासंगिकता पर व्याख्यान दिया। इस सत्र की अध्यक्षता माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृज किशोर कुठियाला ने की। कार्यक्रम की प्रस्तावना मीडिया विमर्श के कार्यकारी संपादक संजय द्विवेदी ने रखी और संचालन डॉ. सौरभ मालवीय ने किया। 

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सम्पादक

डॉ. लीना