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____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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डॉ तुलसी राम - सामाजिक बदलाव वर्ग और वर्ण के एक साथ होने से आएगा

लखनऊ 'मुर्दहिया' और 'मणिकर्णिका' जैसे कालजई आत्मकथ्यों के माध्यम से समाज ही नहीं संपूर्ण साहित्य तक को झकझोरने वाले जेएनयू के प्रोफेसर तुलसी राम के निधन पर उन्हें लखनऊ की इप्टा, जलेस, प्रलेस, जसम, अर्थ एवं सांझी दुनिया जैसी संस्थाओं से जुड़े साहित्यकारों ने १४ फरवरी २०१५ को इप्टा कार्यालय में आयोजित शोक सभा में अपने शब्दों में याद किया।

अध्यक्षता प्रोफेसर रमेश दीक्षित ने की। संचालन करते हुए राकेश ने कहा कि प्रोफेसर तुलसीराम तर्क और विवेक शक्ति के साथ दलित विमर्श की बात करते थे। 
आलोचक वीरेंद्र यादव ने कहा कि उन्हे वे विद्यार्थी जीवन से पसंद करते रहे-उनका अध्ययन समाजशात्रीय है। वो बौद्ध दर्शन और मार्क्स के प्रकांड विद्वान थे। अंबेडकरवाद, समाजवाद और मार्क्सवाद के मध्य एक पुल बनाने की चाह थी। उनका जीवन पूर्णतया साहित्य को समर्पित था। वो अस्वस्था के बावजूद अंत तक साहित्य सेवा और सृजन करते रहे। उन पर कई जगह पर शोध चल रहा है। 
वहीं, नलिन रंजन ने कहा, तुलसी राम जी से जब उनकी पहली मुलाकात हुई तो जाने कब बातों-बातों में वो जान गए कि मैं भी आज़मगढ़िया हूं। तुरंत वहां की प्रचलित भाषा में बात करने लगे। आत्मीयत बढ़ गयी। वो खंडन करते हैं कि दलित ही दलित विमर्श की बेहतर बात/व्याख्या कर सकता है। उन्होंने वर्ग संघर्ष पर बल दिया। उनकी विचारधारा मार्क्सवादी है। दलित विमर्श को समझने के लिए दलित संघर्ष को समझना ज़रूरी है। 
कौशल किशोर ने कहा कि  डॉ तुलसीराम- एक दलित का आजमगढ़ के एक छोटे से गांव से जेएनयू के प्रोफ़ेसर बनने तक कि यात्रा स्वयं में बहुत बड़ा संघर्ष है। उनका चिंतन व्यापक है। वामपंथ के गंभीर अध्येता थे वो। अंबेडकरवाद, बुद्ध और मार्क्स चिंतन को आपस में जोड़ा। आज साम्राज्यवादी शक्तियां सर उठा रही हैं। ये आत्मचिंतन का दौर है। इसमें डॉ तुलसीराम का होना ज़रूरी है। उनकी मृत्यु से उबरने में समय लगेगा। 
अखिलेश ने डॉ तुलसीराम को बड़ी भावुकता से याद किया और कहा, मुझे लगा कतिपय कारणों से वो नाराज़ हैं वो। एक समारोह में मिले वो। बात हुई। वो कहने लगे कोई नाराज़गी नहीं। कुछ माह बाद मेरी पत्रिका 'तदभव' में ही डॉ तुलसीराम की 'मुर्दहिया' और 'मणिकर्णिका' कई कणियों में प्रकाशित हुआ। तदभव के २५वें अंक के समारोह में वो दो वर्ष पूर्व लखनऊ आये थे। वो अस्वस्थ थे। उन्हें विमान का किराया ऑफर किया। लेकिन नहीं लिया। बोले - मेरा भी तो कुछ फ़र्ज़ बनता है। 

शिवमूर्ति जी कहा कि, मैंने उन्हें 'मुर्दहिया' और 'मणिकर्णिका' से ही जाना है। इतने अल्प समय में और अस्वस्था के मध्य इतना अधिक लिखना और उस लिखे का कालजई बन जाना वास्तव में हैरान करता है। 
शक़ील सिद्दीकी ने बताया कि वो गूढ़ से गूढ़ वाक्य को बेहद सरल भाषा में बड़ी आसानी से लिख/कह देते थे। दलित और स्वर्ण का आपसी संघर्ष ऐसा नही है जैसा कि पेश किया गया है। उनमें पढ़ने और और जानने की अदम्य इच्छा शक्ति थी। जनता से जुड़ने का कौशल इसी से विकसित होता हैं। एक साथ कई तथ्यों की जानकारी थी उन्हें। सूरज बहादुर थापा को जेएनयू में अध्ययन के दौरान उन्हें जानने का भरपूर अवसर मिला - लखनऊ विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में मुर्दहिया को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाने में कई अड़चनें आ रहीं हैं। उसे अश्लील तक बताया जा रहा है। लखनऊ के पत्रकारों से मैंने मोबाइल पर उनकी बात करायी।वो हैरान रह गए कि उनमें कितनी शालीनता है। अपनी बात को तर्कसंगत तरीके से गले उतारने की अद्भुत क्षमता है। जड़ता है। 
वहीं प्रोफेसर रूप रेखा वर्मा ने कहा कि, दलित चिंतकों और लेखकों में वो अलग खड़े दीखते हैं। कड़वाहट से बात नहीं लिखते। हतप्रद हूं। अमानवीय स्थितियों से गुज़रने के बाद भी उसे अति तटस्थ होकर लिखा। कम उम्र में चले जाना अपूर्व क्षति है। 

आजमगढ़ की रीता चौधरी बहुत भावुक हो गई। उन्होने कहा कि, मुर्दहिया ने आजमगढ़ को ज़िंदा कर दिया। बचपन की याद दिला दी। मैंने उन्हें बताया कि आजमगढ़ के बारे में आपने इतना कुछ बता दिया कि अब कुछ लिखने को बचा ही नहीं। तब उन्होंने कहा - दलित स्त्री का संघर्ष और विमर्श अभी बाकी है। मेरे पिता ने ५० वर्ष के जीवन में पहली रचना कोई पढ़ी तो मुर्दहिया। कई बार पढ़ी। मां को नही सुनाई। 

कामरेड अली जावेद ने उनके साथ १९७५ से लेकर अब तक का बिताया निजी समय याद किया - कम्युनिस्ट पार्टी में रहते हुए उन्होंने बहुत काम किये। छोटा बड़ा नहीं देखा। जेएनयू में पोस्टर तक लगाये। स्टडी सर्किल में बड़े-बड़े कम्युनिस्ट लीडर बुलाये जाते थे। तुलसीराम हमेशा स्टैंडबाई में रखे जाते। लेकिन उन्होंने कतई बुरा नहीं माना। पार्टी छोड़ते उन्हें बहुत दुःख हुआ। पार्टी को जो काम करना चाहिए था नहीं किया। लेकिन ये बात सार्वजनिक तौर पर कभी नहीं कही। वो धार्मिक उन्माद से दुखी थे, बीमारी से नहीं। चाहत थी कि भरपूर ज़िंदगी जी कर मरूं। उनमें गज़ब का सेंस ऑफ़ ह्यूमर था। अगर ऐसा न होता तो 'मुर्दहिया' और 'मणिकर्णिका' जैसी कालजई कृतियां न लिखी होतीं। 

प्रोफेसर तुलसी राम के एक और निजी मित्र प्रोफेसर रमेश दीक्षित उन्हें पिछले ४५-५० वर्षों से जानते हैं। उन्होंने जेएनयू में उनके साथ बिताये दिनों को याद किया - गांधी को खारिज करने की मुहीम चली थी। तुलसीराम ने सख्त विरोध किया। गांधी के बिना दलित को आगे नहीं बढ़ा सकते। अंबेडकर और मार्क्स में कोई द्वंद नहीं, अंबेडकर और बुद्ध में भी कोई द्वंद नहीं। दबी जमात के आइकॉन थे अंबेडकर। वो बीएसपी के विरोधी थे। अंबेडकरवाद का बहुत नुकसान किया है मायावती ने। काशीराम भी कम दोषी नहीं। दलित का उद्धार अंबेडकर और गांधी के साथ होगा। सामाजिक बदलाव वर्ग और वर्ण के एक साथ चलने से ही आएगा। उनमें पढ़ने की रेंज गज़ब की थी। शास्त्रार्थ के लिए हर समय तैयार रहते। कड़वाहट नहीं थी किसी भी जाति, धर्म समूह या वर्ग के विरुद्ध।
 

रिपोर्ट--वीर विनोद छाबड़ा 

 

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सम्पादक

डॉ. लीना