‘रेणु आ मैथिली’ विषयक सेमिनार को लेकर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार व नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव के नाम रेणु साहित्य के अध्येता ‘अनंत’ का खुला पत्र
मंडल पर कमंडल का हमला, खलनायक कौन है ?
समाजवाद पर ब्राहम्णवाद का हमला खलनायक कौन है ?
साहित्य अकादमी दिल्ली और भूपेन्द्र नारायण मंडल विश्वविद्यालय, मधेपुरा के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित ‘रेणु आ मैथिली’ विषयक सेमिनार फणीश्वरनाथ रेणु जैसे वैश्विक रचनाकार की लेखनी के लालित्य और शान के खिलाफ है। इसके गहरे निहितार्थ हैं। दरअसल, इस विमर्श का विषय साहित्यिक-अकादमिक नहीं, बल्कि हासा-भासा (जमीन और भाषा) की लूट की राजनीति से प्रेरित है। अस्मिताई फसाद पैदा करने वाला यह विषय रेणुजी को ‘आँचलिकता’ से भी तंग ‘मिथिलांचिकता’ के दायरे में कैद करता है और उनके मान-सम्मान को ठेस पहुँचाता है। वैचारिक दृष्टिकोण से देखे तो यह मंडल पर कमंडल और समाजवाद पर ब्राहम्णवाद का हमला है। क्योंकि यह कार्यक्रम बी. पी. मंडल की धरती पर हो रहा है और रेणु समाजवादी साहित्य निर्माता हैं। मेरा प्रश्न यह है कि आखिर इसका खलनायक कौन है ?
सर्वविदित है कि रेणु साहित्य कई स्थानीय बोली, भाषा, संस्कृति और सामाजिक-राजनीतिक आन्दोलनों का संगम है। रेणु के साहित्य के केन्द्र में नेपाल, कोसी, अंग और मगध की धरा मुख्य रूप से विद्यमान है, जो कि ग्रामीण भारत का प्रतिनिधित्व करता है। यह देखा जा सकता है कि अपने उपन्यास ‘मैला आँचल’ के कथानक से मिथिला को रेणुजी ने ही बाहर रखा है। ‘मैला आँचल’ के मेरीगंज में बसे ब्रहम्ण मिथिला की अस्मिता के प्रतीक नहीं है। बाढ़ और सुखाड़ केन्द्रित रिपोर्ताज के केन्द्र में भी मिथिलांचल नहीं है। फिल्म पर जो कुछ लिखा है रेणुजी ने उसका वास्ता भी मिथिला से नहीं है। हां, यह जरूर है कि ‘परती परिकथा’ में इक्के-दुक्के पात्र मैथिली ब्राहमण है। रेणुजी ने मैथिली में फुटकर लेखन ही किया है। उनकी एक किताब भी मैथिली में नहीं है। इसी आधार पर मैथिली भाषी रेणु को मैथिली साहित्यकार के रूप में साहित्य अकादमी पुरस्कार नहीं देने को वाजिब ठहराते हैं ? फिर सवाल यह उठता है कि ‘ रेणु आ मैथिली ’ विषय पर ही परिसंवाद क्यों ? सवाल यह भी है कि कोसी की धरती पर आयोजित परिसंवाद से कोसी ही गायब है, क्यों ? रेणु साहित्य का गहरा जुड़ाव कोसी की संवेदना और सरोकार से है। इसी वजह से कोसी के कछार पर बसे अंग की माटी या उनके साहित्यिक अंचल को लोग रेणु माटी भी कहते है। मिथिला और मैथिली के लोग अगर मानते है कि रेणु साहित्य में उनकी वेदना-संवेदना निहित है, तो कोसी की तरह मिथिला की धरती को रेणु माटी घोषित कर दें। लेकिन यहाँ इनका उद्देश्य कोसी के कछार पर बसे अंग के हिस्से को मिथिला की माटी घोषित करना है।
देश के बड़े से बड़े एकेडमिशियन से ‘रेणु आ मैथिली’ विषयक परिसंवाद के बारे पूछा जाए कि ‘‘ क्या यह विषय रेणुजी के व्यक्तित्व और कृतित्व के लिहाज उचित है ?’’ कोई भी साहित्यिक-अकादमिक व्यक्ति इसे साहित्यिक विमर्श की जगह मैथिली वर्चस्ववाद और कपोल-कल्पित ‘मिथिला राज’ की चैहद्दी बढ़ाने के उद्देश्य से प्रेरित विमर्श की संज्ञा देगा। भाषा और साहित्य पर विमर्श के बहाने हासा अर्थात जमीन की लूट की कवायद है। दूसरे शब्दों में इसे रेणु के गाँव से लेकर अँचल तक में जबरन घुसने का आपराधिक कुकृत्य भी कह सकते हैं।
यह सर्वविदित है कि मध्यकाल के इतिहास में कहीं भी मिथिला का जिक्र नहीं है। बौद्धकाल के 14 जनपदों में किसी का नाम मिथिला नहीं रहा। मिथिला नाम का कोई क्षेत्र इतिहास में नहीं रहा इसलिए देश के प्रमुख भाषा परिवारों में भी मैथिली को स्थान नहीं मिला है। मगही-मागधी, सौराष्ट्री, मरहट्टा, पैशाची आदि भाषा परिवारों का जिक्र है, लेकिन मैथिली इसमें शामिल नहीं है। यह इसलिए कि मैथिली का जन्म ही मागधी-मगही से हुआ है।
‘मैला आँचल’ के मेरीगंज में काली टोपी वाले (आरएसएस वाले) उस दौर में जो सर उठा रहे थे, वही आज इस देश के सरताज बने हैं। इनका ही विश्वास इतिहास में नहीं मिथकीय आख्यानों में है। मिथिला और मैथिली वाले भी अपना जड़ मिथकीय आख्यानों में ही तलाशते हैं। मिथकीय मैजिक के आधार पर संपूर्ण संसार में अपनी छाप देखते है। रेणु की भाखा में ऐसी मानसिकता को ‘लरछुत’ कहते हैं। यही मानसिकता भारतीय ग्राम्य अंचल का प्रतिनिधित्व करने वाली रेणु की रचनाओं में मिथिला-मैथिली के प्रभाव की खोजने करने चला है, जो की स्वतंत्र भाषा है ही नहीं। आज मिथिला-मैथिली तो कल मगही, परसो भोजपुरी, तरसो अंगिका भी अपनी प्रभाव की खोज करेगी तो रेणु के गाँव और अँचल में अस्मिताओं का टकराव होगा, जिससे समाज में जहर फैलेगा। यह जहर रेणु के गाँव और अँचल के ताना-बाना तहस-नहस करेगा। रेणु के गाँव और अँचल के बिखरने का मतलब होगा देश का टूटना। सवाल है कि देश को तोड़ना कौन चाहता है ?
दुखद यह है कि इसकी प्रयोगशाला बिहार को बनाया गया है। अलग मिथिला राज की परिकल्पना वक्त-बेवक्त कुलांचे मारती भी है। साहित्य अकादमी, दिल्ली इसका अगुआ बना है। भूपेन्द्र नारायण मंडल विश्वविद्यालय, से संबध ‘मधेपुरा कॉलेज मधेपुरा’ का कैम्पस कार्यक्रम स्थल है। कोसी के कछार पर बसे अंग के इलाका, जिसे कोसी बेल्ट या रेणु माटी कहते हैं, उसे ही बैटल फिल्ड बनाया गया है। विश्वविद्यालय के कुलपति हैं - विमलेन्दु शेखर झा, जो स्वयं मैथिल ब्राहम्ण हैं। कुलपति ही उदघाटनकर्ता हैं। साहित्य में पहचान रखने वाले मैथिली साहित्यकार सह बिहार सरकार के अधिकारी तारानन्द वियोगी का नाम भी मुखर वक्ता के रूप में शुमार है। तारानंद वियोगी भी स्थानीय ही हैं। मैथिली पहचान से प्यार इन्हें भी है।
आप दोनो समाजवादी राजनीति के अगुआ हैं। आप दोनो का ध्यान इस पत्र के माध्यम से आकृष्ट करना चाहता हूॅ कि हासा -भाषा (संस्कृति व भाषा ) की लूट और अस्मिताओं के टकराव का बीज हमारे सूबे में बोया जा रहा है। फैसला आपको लेना है। और यहां के समाजवादी ताने-बाने को आप दोनो से बेहतर कौन समझ सकता है।
पत्र लेखक - ‘अनंत’
परिचय - रेणु के अध्येता हैं। इनकी चर्चित पुस्तक है - ‘दो गुलफामों की तीसरी कसम’ , इसके अलावे देशज अस्मिता और रेणु साहित्य ‘ पुस्तक का संपादन भी किया है।