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 मीडियामोरचा

____________________________________पत्रकारिता के जनसरोकार

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विचार की चोरी और इंटरनेट की नयी नैतिकता

संजय ग्रोवर।फ़ेसबुक/इंटरनेट पर बीच-बीच में ऐसी बातें उठती रहतीं हैं कि किसीके विचार/रचना/स्टेटस चुराने में बुरा क्या है, आखि़र हम उसके विचार फ़ैला रहे हैं, समाज को फ़ायदा पहुंचा रहे हैं, रचनाकार का काम ही तो कर रहे हैं, तो रचनाकार/विचारक को इसपर आपत्ति क्यों हो। 

इंटरनेट के विस्तार से एक बहुत अच्छा काम यह हुआ/हो रहा है कि लोग दूसरों की बातें सुनते हैं और छोटी से छोटी बात पर भी विचार करने को तैयार रहते हैं। किसीकी बात बिलकुल निराधार या तर्कहीन भी हो तो उसे यह समझाने में कोई हर्ज़ नहीं कि आपकी बात तर्कहीन है।

मुझे इस बात का आज तक एक भी कारण समझ/नज़र में नहीं आया कि दूसरों की बात/विचार/रचना बिना उसके नाम के क्यों देनी चाहिए !? आपकी ऐसी कामना/लालसा/वासना जिसमें आप दूसरे को भी शामिल/इस्तेमाल कर रहे हैं, उसके लिए आप कोई वाज़िब वजह तो देंगे कि नहीं देंगे !?

आखि़र रचना/विचार से जुड़े व्यक्ति का नाम देने में समस्या क्या है ? क्या उसका नाम देने के लिए आपको हिमालय की चोटी पर चढ़ना पड़ेगा ? क्या उसके लिए आपको स्पाँसर ढूंढना पड़ेगा ? क्या उसके लिए आपको कुश्ती लड़नी पड़ेगी ? क्या उसका नाम देने से आपको स्पाँडिलाइटिस हो जाएगी ? क्या उसके लिए संसद में बिल पास कराना पड़ता है ? क्या उसके लिए आपको बैंक से क़र्ज़ा लेना पड़ेगा ? क्या उसका नाम देने से महंगाई बढ़ जाएगी ? क्या उसका नाम देने से इस बार की फ़सल नष्ट हो जाएगी ? क्या नाम न देने से समाज को वह बात जल्दी समझ में आ जाएगी ?क्या उसका नाम देने के लिए आपको अगले चौक से ऑटो लाना पड़ेगा ?

आखि़र समस्या क्या है ? आखि़र रचना/विचार चुराने के लिए भी आपको एक मोबाइल/स्मार्टफ़ोन/टेबलेट/लैपटॉप/पीसी तो चाहिए ही न ? उसीमें ज़रा-सी उंगली हिलाएंगे और स्टेटस शेयर हो जाएगा। फिर यह ज़िद क्यों ?

इससे होगा यह कि एक तो असली आदमी का नाम नहीं जाएगा ; दूसरे, आपका नाम चला जाएगा। विचारक का नाम ज़रुरी नहीं है और चुरानेवाले का नाम ज़रुरी है ? चुपड़ी और दो-दो ? क्या विचार करना और चाय पीना आप एक ही बात समझते हैं ? फिर तो चोरी, छेड़ख़ानी, लूटपाट, सेंधमारी और ज़बरदस्ती में भी क्या दिक़्क़त है ?

आपको अपने साथ कुछ भी करने की स्वतंत्रता है, मगर सबके लिए नियम आप कैसे बना सकते हैं, वो भी ऐसे मामलों में जहां दूसरा शामिल है और जहां ज़बरदस्ती हो रही है !? और आप मूल लेखक की स्वीकृति तक नहीं लेना चाहते !?

अपने साथ आदमी जो चाहे कर सकता है। किसीके पास अतिरिक्त संपत्ति है या दूसरों में बांटना चाहता है तो वह घर ख़ुला छोड़कर जा सकता है, ताले-चाबी फ़ेंक सकता है, कबाड़ी को दे सकता है ; फिर भी काम न हो तो सूचना लिखकर टांग सकता है, विज्ञापन दे सकता है कि हमारे यहां चौबीस घंटे चोरी करने की छूट है, सुविधा है, आने से पहले फ़ोन करलें तो और भी अच्छा, मैं हूंगी/हूंगा तो भी टहलने निकल जाऊंगी/गा.......

आप अपने स्टेटस लुटाने के लिए बिलकुल स्वतंत्र हैं। आप अपनी पुस्तकों के प्रकाशक से कह सकते हैं कि आपकी क़िताब आपके पड़ोसी के नाम से छाप दे, रॉयल्टी ज़रुरतमंदो को दे दे। आपको अपनी बात अपने नाम के बिना कहने में इतना आनंद होता है तो आप परदे के पीछे खड़े होकर भाषण दे सकते हैं, मास्क लगा सकते हैं, अपने विचार किसी दूसरे परफ़ॉर्मर/रनर को लिखकर दे सकते हैं ; कौन आपत्ति करेगा ?

मगर आप सारी कॉलोनी/समाज के लिए ऐसे नियम/मान्यताएं/परंपराएं बनाने की कोशिश करेंगे तो यह संभवतः कम ही लोगों को जायज़ या तर्कसंगत लगेगा। आप क्या सोचते हैं ?( लेखक के ब्लॉग http://samwaadghar.blogspot.in से)

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सम्पादक

डॉ. लीना